लगभग तीस भाषाओँ और तीन सौ बोलियों वाले भारतवर्ष के एकता का सूत्र क्या है? क्यों चावल को मुख्य भोजन मानने वाला बंगाल और रोटी खाने वाले पंजाब के साथ, एक सुर में वन्दे मातरम गाता है. कुछ विरोधाभाषों के बाद भी आखिर तमिल और गुजरती के मध्य एकता के सूत्र क्या हैं? क्यों जब महाराष्ट्र में बिहारियों पर हमला हुआ तो विरोध में मराठी हीं उठ खड़े हुए ? वास्तव में इन तमाम विरोधाभाषों और भिन्नताओं के बीच, भारत के एकता का सूत्र है क्या ? जितना भी सोचिये, जितना भी विचार कर लीजिये, घूम-फिर कर उत्तर यही आएगा कि हिमाचल के पहाड़ों में रहने वालों और केरल के समुद्रतट पर रहने वाले लोगों के मध्य एक हीं सूत्र है जो उन्हें जोड़ता है, वो है हमारा धर्म – हिंदुत्व . यह हिंदुत्व हीं है जो सभी विरोधाभाषों के बीच हमें जोड़ता है और हमें भारतीय बनाता है. अर्थात यह हिंदुत्व हीं है जो भारत की आत्मा है. ऐसे में यह कहना कि हिंदुत्व शब्द भारतीयता का पर्यायवाची शब्द है, कतई भी अतिशयोक्ति नहीं है.
आज हमारे लिए राष्ट्रवाद की वही परिभाषा है, जो योरोप ने अपने लिए तय किया था. लगभग सभी योरोपीय देशों में इसाई मत हीं बहुमत में है, फिर भी योरोप एक देश नहीं. इसका कारण भाषाई विभेद हीं हैं. खानपान और रहनसहन में कोई विशेष अंतर तो नहीं है. लेकिन भाषा, खानपान अथवा रहनसहन हमारे राष्ट्रवाद के मध्य कभी नहीं आया. हमारी तुलना तुलना किसी अन्य देश अथवा भूभाग से नहीं कि जा सकती है क्योंकि हमारी सोच और संस्कृति आयातित ना हो कर मौलिक है और दो मौलिक विचारधारा में अंतर होना स्वाभाविक हीं है.
आश्चर्य से भी अधिक तो यह दुखद बात है कि विश्वगुरु भारतवर्ष को राष्ट्रवाद के मानदंड वहां से लाना पड़ा,जहाँ सभ्यता के जन्म होने से पहले हीं भारतवर्ष के राष्ट्र के रूप में परिणत ही चूका था. वास्तव में राष्ट्र के रूप में हमारी स्थिति अद्वितीय है. हमारे देश में राष्ट्र का आधार हीं धर्म है, धर्म क्या – हिंदुत्व! हिंदुत्व क्या – जीवन के अंतिम लक्ष्य के प्रति एकरूपता. तो फिर यह स्वीकार करने में संकोच कैसा कि हिंदुत्व हीं भारतीयता है.
महर्षि अरविंद घोष ने कहा है ‘यह राष्ट्र धर्म के साथ पैदा हुआ, उसके साथ वह चलता है और उसी के साथ वह बढ़ता है. जब सनातन धर्म का क्षरण होता है तब राष्ट्र का क्षरण होता है’. उदहारण के लिए ब्रह्मा देश (मयन्मार) से लेकर उपगणस्थान (अफगानिस्तान) और पाकिस्तान से लेकर बंगलादेश भी है जो कभी अखंड भारत की शोभा बढाता था. जो खंडित भारतवर्ष आज बचा है वो भी इसलिए कि इस भूमि पर सनातनधर्मियों की बहुलता है. स्वामी विवेकानंद जी ने भी कहा था “जो हिंदुत्व का त्याग किया तो तुम्हारा (हिंदुओं का) अंत निश्चित है”.
जब कांग्रेस के दुर्नीतियों के फलस्वरूप, 1947 में देश पर विभाजन का संकट आया और करोडो हिन्दुओं को तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान(अब बंगलादेश) और पशिमी पाकिस्तान से बलपूर्वक हटाया गया तो, उन्होंने भारतभूमि का रुख किया. आज भी पाकिस्तान अथवा बंगलादेश में हिन्दू पर अत्याचार होता है तो वे भारत का रुख करते हैं. प्रश्न है कि सिंध के प्रांतीय संसद के हिंदू सदस्य (और उनके जैसे हजारों पाकिस्तानी हिंदू) जो हाल हीं में जान से मारने की धमकी के बाद भारत में शरण लेने आये हैं, वे भारत हीं क्यों आये ? क्यों नहीं इरान अथवा अफगानिस्तान चले गए? आज भी बंगलादेश और में त्रस्त हिन्दू भारत का हीं रुख क्यों करते हैं, चीन अथवा मयन्मार का क्यों नहीं? आप सोचेंगे तो जवाब यही आएगा कि भारत में उन्हें हिन्दुओं के लिए एक स्वाभाविक शरण स्थली दिखती है. जब कि सच्चाई तो यह है कि हमारा देश घोषित तौर पर धर्मनिरपेक्ष है.
आज जो हमारा खंडित भारत बचा है उसमे भी अलगाववाद की आवाज उठ रही हैं. लेकिन आवाज भी सिर्फ वही उठती है जहाँ हिन्दू अल्पसंख्यक हैं. भले कई बार तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आन्दोलन हुए हों. लेकिन कभी भारत को विभाजित करने जैसी भावना नहीं दिखी. भूलवश भी किसी हिन्दू बहुल राज्य के राजनीतिक संगठन ने भारत के अस्तित्व पर सवाल उठाने का साहस नहीं किया. लेकिन हिन्दुओं के अल्प संख्या वाले राज्यों में यह आम बात है.
जब वीर सावरकर ने कहा कि धर्मान्तरण हीं राष्ट्रान्तरण है तो उनका कांग्रेस के चमचो ने बड़ा विरोध किया. परन्तु जब हम कश्मीर से उत्तर-पूर्व तक धर्मान्तरण में राष्ट्रान्तरण का बिज देख रहे हैं तो भला इस सत्य को स्वीकार करने से इनकार कैसे करें.
इस भारतभूमि में, भारत का होना ना होना, हम हिन्दुओं के अतिरिक्त, किसी के लिए महत्व नहीं रखता. देश के बहुसंख्य मुसलमानों के लिए तो सम्पूर्ण भारतवर्ष को पाकिस्तान बनाना आज भी स्वप्न है. 1947 में विभाजन के पहले, हुआ आखिरी चुनाव पृथक निर्वाचन पद्धति के साथ हुआ था. यानि मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में मुसलमानों के लिए सीटें आरक्षित थी, जहाँ उम्मीदवार भी मुसलमान होते थे और मतदाता भी मुसलमान हीं हो सकते थे. कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने सभी मुस्लिम आरक्षित सीटों पर उम्मीदवार दिया था. कांग्रेस ने घोषित किया था कि यदि वे चुनाव जीत गए तो फिर देश नहीं बटेगा. वहीँ मुस्लिम लीग, अपने एक सूत्री मांग – भारत विभाजन के साथ मुकाबले में उतरा था. जो चुनाव परिणाम आये, वे चौकानेवाले थे. कांग्रेस को मुस्लिमों के लिए आरक्षित सीटों पर भरी धक्का लगा था. जो सीटें कांग्रेस ने मुस्लिम कोटे की जीती भी थी, वे पख्तून क्षेत्र में थी अथवा सिंध में थी. लेकिन आज के भारत में अर्थात उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम, बिहार सहित सम्पूर्ण भारत में मुस्लिम लीग का झंडा फहराया था. अर्थात वर्त्तमान भारत में रह रहे मुस्लिमों और उनके पूर्वजों ने पाकिस्तान को चुना था. मौलाना अबुल कलम आजाद ने भी अपनी पुस्तक में इस पर चर्चा कि है कि विभाजन में जब उत्तर प्रदेश, बंगाल और बिहार को पाकिस्तान में नहीं मिलाया जा सका तो मुसलमान हताश थे. वे आजाद से मिले तो आजाद ने उन्हें भारत में हीं रहने और भारत देश के साथ वफ़ादारी निभाने कि सलाह दी. कुछ इसी तरह की बात हाल हीं में कांग्रेसी सांसद रसीद अल्वी ने भी ‘दैनिक जागरण’ में लिखा था जो कि ‘पांचजन्य’ में भी प्रकाशित हुआ था.
सुहरावर्दी ने तो सम्पूर्ण बंगाल को हीं पाकिस्तान बनाना चाहा था. उसने सोनार बांग्ला (स्वर्ण बंगाल) का नारा दिया, लेकिन श्यामा प्रसाद मुख़र्जी के प्रभाव के कारण वह असफल रहा. कहा जाता है कि तब सुहरावर्दी ने मुसलमानों से पश्चिम बंगाल में हीं रह कर ऐसी स्थिति बनाने की सलाह दी कि जिससे एकदिन सम्पूर्ण बंगाल को भारतवर्ष से अलग किया जा सके. यही कहानी असम की भी है. यह अकाट्य तथ्य है कि खंडित भारत के मुसलमानों ने भी यदि अखंड भारत चाहा होता तो भारत का विभाजन नहीं होता. विभाजन का आधार हीं यही था कि लगभग ९५ प्रतिशत मुसलमानों ने अलग देश चाहा था. आज की तिथि में यदि आप मुसलमानों की राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्धता देखना चाहते हैं तो ‘वन्दे मातरम’ जो कि राष्ट्रगीत है, के प्रति उनकी भावना को देखिये और समझिये.
मैं कई बार सोचता हूँ कि भला सम्पूर्ण दक्षिण एशिया में भारत हीं एक मात्रा ऐसा देश क्यों है, जहाँ आप जितने ऊँचे सुर में चाहें, धर्मनिरपेक्षता का नारा लगा सकते हैं. क्यों हिन्दू यह सवाल नहीं करता कि विभाजन के बाद पाकिस्तान में 11,000 मंदिर तोड़ दिए गए तो हम एक विवादित ढांचा (मस्जिद नहीं) को तोड़कर राष्ट्रपुरुष मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का मंदिर क्यों नहीं बना सकते? क्यों हिन्दू यह सवाल नहीं करता कि 1949 में जब पाकिस्तान में 18 प्रतिशत हिन्दू जनसँख्या थी और बंगलादेश में 35 प्रतिशत तो आज वे सब कहाँ विलुप्त हो गए? पाकिस्तान और बंगलादेश कि बात तो छोडिये, हिन्दू तो अपने हीं देश, कश्मीर में हीं हजारो मंदिरों के तोड़े जाने पर सवाल नहीं करते. वे तो यह भी नहीं पूछते कि जब 1950 में पश्चिम बंगाल में मुसलमान मात्र 10 प्रतिशत थे तो आज 30 प्रतिशत क्यों और कैसे हो गए और यही हाल बिहार, उत्तर प्रदेश और असम का भी कैसे हो रहा है ? संभवतः मेरे प्रश्न का उत्तर भी हिंदुत्व में हीं है. हिंदुत्व में स्वयं हीं इतने आलोडन हैं कि इसे कट्टरता की सीमा में कभी बंधा हीं नहीं और ह्रदय के द्वार उदारता के सुगन्धित वायु के लिए खुले रखे गए. वास्तव में हिंदुत्व religion नहीं है, यह धर्म है. religion हिंदी में संप्रदाय के समक्ष ठहरता है, वह धर्म का अंग्रेजी अनुवाद कभी नहीं हो सकता. इसी तरह इसाइयत अथवा इस्लाम धर्म नहीं हैं, ये संप्रदाय हैं. सम्प्रदायों में एक विशेष नियम होता है, उनसे अलग जाने की आज्ञा किसी को नहीं होती. सम्पूर्ण इस्लाम कुछेक सौ पन्नो के कुरान पर आधारित है, जैसे हीं कोई मुसलमान 2000 वर्ष पूर्व अरब देशों के कबीलाई सभ्यता के लिए लिखे गए कुरान से अलग आचरण करता है, उसे इस्लाम से बाहर कर दिया जाता है. कमोबेश यही हालात इसाई धर्म की भी है. दुसरे, सभी संप्रदाय में अपनी संख्या बढ़ने की होड़ लगी रहती है. मुसलमान इसके लिए जिहाद करते हैं तो इसाई अपने चर्च और मिशनरियों का सहारा लेते हैं.
लेकिन क्या किसी ने कभी सुना है कि धर्मविरुद्ध आचरण के दोषी पाए जाने पर हिन्दू धर्म से किसी का निष्काशन हुआ है? क्या ऐसी कोई पुस्तक हमारे धर्मगुरुओं ने परिभाषित की है जिसके विचारों को बिना सोचे समझे अमल में लाना हमारे लिए हिन्दू होने की पहली शर्त हो? अथवा तलवार के शक्ति से अथवा राजाश्रय का सहारा लेकर ऐसे लोगों के धर्मपरिवर्तन की कोशिश हुई हो जो पहले हिन्दू ना रहे हों ? उत्तर सिर्फ नहीं में हो सकता है.
अंततः हमें यह स्वीकार करना चाहिए हिंदुत्व और भारतीयता की स्थिति अन्य समकक्षों से अलग है, और दोनों का हीं सम्बन्ध अटूट है. इतना अटूट कि हिंदुत्व और भारतीयता एक दुसरे के पर्याय हैं. अब चुकी हम हिन्दू हैं, अर्थात भारतीय हैं तो हिंदुत्व अर्थात भारतीयता की रक्षा का और अखंड भारत के अखंड स्वप्न को पूर्ण करने का कर्तब्य भी हमारी हीं है.
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