Sunday, June 20, 2010

भोपाल गैस त्रासदी – एक वृहद परिप्रेक्ष्य


भोपाल गैस त्रासदी पर नयायालय के फैसले ने देश में राजनीतिक तापमान कई गुना बढ़ा दिया है। ख़बरों के अकाल से जूझ रहे समाचार चैनलों और सड़क पर आकर सरकार का विरोध करने की शक्ति गवां  चुकी विपक्ष को जैसे कोई खजाना मिल गया।
26 वर्षों तक गहरी नींद में सोये हुए ये लोग अब सवाल कर रहे हैं की एंडरसन को भारत से भागने के लिए कौन जिम्मेवार है। मैं समझता हूँ की ये प्रश्न यदि 26 वर्ष पहले पूछे गए होते तो कई चेहरे बेनकाब होते। समझ में नहीं आता कर्तब्य पर तत्पर विपक्ष और मीडिया तब कहाँ थी। वास्तव में हमारे देश में अदालत के फैसले इतनी देर से आते हैं की न्याय मरहम की जगह नासूर बन जाता है। लगभग हर माह किसी जनहित याचिका के सन्दर्भ में सरकार और जनप्रतिनिधियों को कर्तब्य का पाठ पढ़ाने वाली अदालत कभी खुद से प्रश्न क्यों नहीं पूछती?
मैं इस बारे ज्यादा बात नहीं करूँगा की एंडरसन को भगाने के लिए जिम्मेवार कौन था अथवा किन कारणों से ऐसा किया, मैं इसके सन्दर्भ में हीं एक वृहद् समस्या को रेखांकित करना चाहता हूँ.
सवाल है की जब सरकार यह मानती है की एंडरसन भोपाल गैस त्रासदी के लिए जिम्मेवार है तो फिर उसे देश से बाहर जाने क्यों दिया गया। जरा सत्ताधारी कांग्रेस के बयान तो सुनिए - कानून मंत्री वीरप्पा मोइली कहते हैं की एंडरसन की रिहाई के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के सचिव पि सी अलेक्जेंडर जिम्मेवार हैं. वित्त मंत्री प्रणब मुख़र्जी कहते हैं की अर्जुन सिंह ने दंगा होने के भय से एंडरसन को भोपाल के बाहर जाने की अनुमती दी।
मैं माननीय कानून मंत्री से यह जानना चाहता हूँ की अगर अलेक्जेंडर ने अपनी मर्जी से एंडरसन को देश छोड़ने की अनुमति दी तो क्या इससे ये प्रमाणित नहीं होता कि अलेक्जेंडर प्रधानमंत्री के कार्यालय में बहुत अधिक शक्तिशाली थे और प्रधानमंत्री ने बेहद महत्वपूर्ण फैसले भी करने के अधिकार उन्हें दे दिए थे जो कहीं न कहीं राजीव की अक्षमता को भी दर्शाता है। अब अगर प्रणब बाबू की बात माने तो भोपाल के बाद, क्या सीधे अमेरिका हीं है जहाँ एंडरसन को भेजा जा सकता था। यदि किसी अनहोनी का भय था तो एंडरसन को दिल्ली या किसी अन्य गुप्त जगह पर भी रखा जा सकता था। यदि किसी अनहोनी का भय हीं एंडरसन के मुक्ति का कारण है तो मैं समझता हूँ की कसाब को फ़ौरन उसके देश भेज देना चाहिए। जब उसके सभी प्रकार के अपील पर अंतिम फैसला आ जाये तो उसे बुला कर फांसी अथवा जो भी अन्य सजा तय हो वह दे दी जाये। आश्चर्य होता है वरिष्ठ नेताओं के मुह से ये बातें सुन कर!
सवाल तो विपक्ष से भी है। क्यों विपक्ष 26 सालों से चुप था? लगभग 10 सालों के लिए उन्हें भी टुकड़ों में हीं सही, सत्ता तो मिली थी। तभी जाँच कर लिया होता की भला एंडरसन को क्यों अमेरिका लौटने दिया गया तो अर्जुन के मुंह खोलने की प्रतीक्षा किसी को न होती।
हमारे न्यायलय तो किसी भी टिका टिपण्णी के दायरे से बाहर हैं लेकिन क्या उन्हें खुद से यह पूछना जरूरी नहीं लगता की क्यों न्याय से न्यायलय का रिश्ता टूटता हुआ सा है। 1984 के सिख दंगो पर अंतिम निर्णय अभी बाकी है। रुचिका गिरहोत्रा के मामले में तथाकथित न्याय को देखने से पहले उसे आत्महत्या कर लेना पड़ा। 26 वर्षों के बाद भोपाल गैस कांड में सजा और जमानत का फैसला एक साथ आया। मेरा मानना है की यदि आपके पास पैसे की ताकत है और अपने 35 वर्ष की उम्र के बाद कोई अपराध किया है तो देश की अदालात आपको सजा नहीं दे पायेगी। अंतिम फैसला आने के पहले आप परलोक सिधार चुके होंगे और इश्वर के अदालत में हीं आपका फैसला हो सकेगा।
मीडिया के बारे आजकल सर्वाधिक महत्वपूर्ण चर्चा तो पेड़ न्यूज़ को लेकर है। पेड़ न्यूज़ यानि पैसे लेकर खबर छपने की प्रथा। अब जहाँ पैसे लेकर खबरे छपती हों या दिखाई जाती हो वहां से तथ्य मिलने की उम्मीद कैसे करें। समाचार चैनलों के अपने दर्शक हैं और वह उन्ही के पसंद और नापसंद के हिसाब से चिल्लाता है। उसके लिए जिंदगी की कीमत भी उसके जेब के हिसाब से है। आप बस हाल में हीं हुई दो दुर्घटनाओं की तुलना करिए सब कुछ साफ़ हो जायेगा। मंगलौर में हुए प्लेन क्रैश को और पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में उडाये गए ट्रेन को मिले कवरेज की तुलना कीजिये। मंगलौर प्लेन क्रैश एक दुर्घटना थी, जिसके लिए कोई भी सीधे तौर पर दोषी नहीं था। जबकि मिदनापुर में हुआ ट्रेन धमाका एक सुनियोजित अपराध, लेकिन जो महत्व समाचार चैनलों ने प्लेन क्रैश को दिया उसका एक चौथाई भी ट्रेन धमाका को नहीं मिला। वास्तव में फर्क दोनों जगह मरने वालों के जेब में है। एक वर्ग उपभोक्ता है, इन चैनलों में दिखने वाले विज्ञापनों के उत्पाद का और दूसरा अभी भी सरकारी राशन दुकान से चावल उठता है। एक लोकप्रिय समाचार चैनल पर प्राइम टाइम में खबर आ रही थी की अमिताभ बच्चन एक टीवी शो फिर से होस्ट करने जा रहे हैं। लगभग 30 मिनट तक यह खबर चलती रही। बॉटम में एक खबर फ्लैश हो रहा था - पश्चिम बंगाल के किसी गाँव में भूख से एक हिं परिवार के तीन लोगो की मौत। अमिताभ बच्चन के शो के लिए ३० मिनट और भूख से मरते इंसान की खबर बॉटम में दिखाकर कर्तब्य की इतिश्री! आखिर महीने में एक लाख रुपये की सैलरी पाने वाला भारत ऐसी खबर सुनकर अपनी शाम क्यों ख़राब करे? और भूख से मरने वाले लोग न तो अखबार पढ़ते हैं न टीवी देखते हैं.
सरकार कह रही है कि हम एंडरसन के प्रत्यर्पण की कोशिश कर रहें हैं लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है। गौरतलब है कि अमेरिका सार्वजनिक मंचो से भारत को अपना सबसे प्रिय और भरोसेमंद मित्र बताता है। अमेरिका के राष्ट्रपति भारत के लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था की प्रशंसा करते नहीं अघाते तो फिर वो भारत के लोकतान्त्रिक सरकार के इस मांग को क्यों नकार रहे हैं?
अख़बारों में एक खबर पढ़ा था की अमेरिका के राष्ट्रपति निक्सन जो इंदिरा गाँधी की समकालीन भी थे, उन्होंने एक नोट में इंदिरा गाँधी के लिए अपशब्दों का प्रयोग किया था। इंदिरा वैश्विक मामलों में किसी की सुनती नहीं थीं इसलिए अमेरिका से उनके रिश्ते कभी भी अच्छे नहीं रहे। वास्तव में तीसरी दुनिया के एक देश की प्रधानमंत्री उस वक्त इतनी मजबूत थी की विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली देश के प्रसाशक उनसे इस हद तक परेशान हो जाते थे कि अपना आप खो बैठते थे। आज जबकि हम विश्व के महत्वपूर्ण आर्थिक शक्ति में से एक हैं, जबकि हमारी सैन्य शक्ति किसी से कम नहीं तो हम विदेश नीति में अमेरिका के पदचिन्हों को अपना रास्ता बना चुके हैं। हमारे लिए आर्थिक तरक्की हीं सरकार का अर्थ रह गया है। भारत सरकार एक देश की सरकार कम और किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी की निदेशक मंडल अधिक दिखती है। ऐसे में अमेरिका भला क्यों सुने भारत की और क्यों हो एंडरसन का प्रत्यर्पण।
निराशा के इस दौर में उम्मीद है युवा वर्ग! लेकिन क्या यह युवा किसी परिवर्तन का सारथी बनने को तैयार है? आप सोशल नेटवर्किंग साइटों पर जाएँ। इनके लिए तो 25,000 लोगों की मौत एक हंसाने और जोक्स बनाने के साधन है। कहीं एक पोस्ट देखा - भोपाल गैस त्रासदी को राजीव गाँधी जनसँख्या नियंत्रण योजना नाम देना चाहिए। लगभग एक सौ से अधिक जवाब थे उस पोस्ट पर। एक छोटी सी चीज काफी कुछ बयान कर जाती है। मनमोहन सरकार के दौर में जवान हुई और हो रहे ये युवा भारतीय होने का अर्थ भी नहीं जानते हैं। पश्चिमी देशों में राष्ट्रवाद को लेकर कोई विशेष आग्रह नहीं दीखता। यही अब हमारे यहाँ भी दिख रहा है। लेकिन यह दक्षिण एशिया में कारगर नहीं हो सकता। आप खुद सोचिये जिस आसानी से एक ब्रिटिश नागरिक स्पैनिश हो सकता है क्या वैसे हीं एक भारतीय भी पाकिस्तान का नागरिक हो सकता है या फिर कोई पाकिस्तानी भारतीय नागरिक हो सकता है? बेशक जवाब सिर्फ न में हीं हो सकता है।
वास्तव में भोपाल गैस त्रासदी और उसका प्रबंधन, उदाहरण है- हमारे व्यवस्था के असफल होने का, हमारी न्यायालयों के कर्तब्यविमुखता का, हमारे नेताओं के संवेदनहीनता का, और स्वयं को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ होने का दावा करने वाले मीडिया के अवसरवादिता का। यह संकेत भी है एक राष्ट्र के तौर पर कहीं रीढविहीन होते जाने का। क्योंकि भोपाल गैस त्रासदी 3 दिसम्बर, 1984 से कहीं ज्यादा बाद के 26 वर्षों में और भयावह होती गयी है।यह संकेत भी है है चकाचौंध के पीछे के भयंकर अन्धकार को देखने का जो आज नहीं तो कल सामने तो आएगा जरूर।

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