माओवाद बनाम लोकतंत्र
ग्यारह तारीख, अप्रैल (2010) महीने की बात है. मैं झारखण्ड के कोयलांचल क्षेत्र में ऑडिट के सिलसिले में गया हुआ था. मेरे साथ तीन और लोग थे. हमलोग वहां कोल इंडिया के गेस्ट हाउस में ठहरे हुए थे. रविवार का दिन था और आज पूरा आराम था. सुबह करीब आठ बजे का वक्त रहा होगा. मैं बाहर लॉन में बैठकर अखबार पढ़ रहा था. पिछले मंगलवार को हीं नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा में सी.आर.पी.एफ. के सत्तर से अधिक जवानों को मार दिया था. इसलिए पूरा का पूरा अखबार इसी तरह के समाचारों से भरा पड़ा था. अभी अभी एक बंगाली भद्र पुरुष नक्सलवाद के समर्थन में जोरदार बहसबाजी कर के गए थे. लेकिन मैं देश के सैनिकों और अर्धसैनिक बलों की हत्या को राष्ट्रद्रोह मान कर उनके खिलाफ कड़ी कारर्वाई करने की वकालत कर रहा था. मैंने ऑपरेशन ब्लू स्टार का उदहारण दिया और वैसी हीं कार्यवाई की अपेक्षा जताई. भद्र पुरुष नाराज हो कर उठकर चल दिए और मैं अखबार पढ़ता रहा.
सहसा मेरे पैरो के पास कुछ हलचल हुई. देखा तो एक वृद्ध मेरे कुर्सी के निचे कुछ टटोल रहा था. तभी ध्यान आया कि मैं महुआ के पेड़ के निचे बैठा हूँ और वह कुर्सी के चारो पैरों के मध्य से महुआ निकालने की कोशिश कर रहा है. परेशान होकर मैं वहां से उठ गया और अधिक दिमाग खपाए बिना नाश्ता करने अन्दर चला गया. करीब एक घंटे बाद जब वापस बाहर निकला तो देखा वह वृद्ध अपनी मेहनत की पूंजी समेटे अब जाने की तैयारी कर रहा है. मैंने इस बार उसे ध्यान से देखा लगभग सत्तर साल उम्र, पांच फीट की लम्बाई, काली रंगत, झुकी हुई कमर और भावशून्य चेहरा - यही उस वृद्ध का व्यक्तित्व था. मुझे समझ आ गया कि यह झारखण्ड का आदिवासी यानि वनवासी यानि मूलनिवासी है. जितना महुआ उसने चुना था वह उसके धोती (जिसे लंगोटी कहना अधिक न्यायसंगत होगा) में बंधा हुआ था. मेरा बचपन गावं में बिता है और मैंने भी महुआ चुना है, यह अलग बात है कि महुआ चुनना मेरे लिए रोजी - रोटी की जरूरत नहीं थी. किन्तु अपने लगभग 12 वर्ष पुराने अनुभव से भी मैं यह तो अनुमान लगाने में समर्थ हो हीं गया कि उसकी कमाई इस भीषण महंगाई के दौर में भी 3 रुपये से अधिक तो नहीं हीं होगी. कांग्रेस के 'बिहारी-मुम्बैया' सांसद संजय निरुपम का लोकसभा में दिया गया भाषण याद आ गया. संजय ने कहा था "मेरा दिल नहीं मानता कि इस देश में अभी भी ऐसी गरीबी है जहाँ लोग २० रुपये या उससे कम में भी गुजरा कर रहे हैं".
मैंने देखा वह बूढ़ा इंसान अब धीरे धीरे गेस्ट हाउस की सीढियां उतरकर जा रहा है. न जाने क्यों मन में उत्कंठा हुई और मैं उसके पीछे -पीछे कुछ दूर तक चला गया. मैं देखना चाहता था कि वह रहता कहाँ है. देखा तो वह एक पांच - छः फीट ऊँची मिटटी के दीवारों वाले एक कमरे के घर में घुसा. हे इश्वर! यह इंसानों के रहने का घर है ? पांच फीट की मिटटी की दिवार, टूटी हुई खपरैल छत, पंखे और बल्ब की तो बात हीं बेमानी है. इस छोटी सी घटना ने मेरे मन मस्तिष्क को झकझोर दिया और मेरी सोच में व्यापक परिवर्तन हुआ.
झारखण्ड, उडीसा, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, और पश्चिम बंगाल का वह क्षेत्र जो नक्सलियों के अधिपत्य के लिए जाना जाता है वह वास्तव में खनिज सम्पदा के मामले में बेहद धनी है. लेकिन किसानों के लिए बेहद कम उपजाऊ. संभवतया यह कोई वैज्ञानिक तथ्य होगा (बल्कि है भी) कि जिन क्षेत्रों में भी खनिज सम्पदा की अधिकता है वहां की भूमि कम उपजाऊ अथवा अनुपजाऊ है. अरब देशों की जमीन भी उपजाऊ नहीं है लेकिन जमीन के निचे दबे खनिज तेल ने तो उनकी किस्मत हीं बदल दी. लेकिन दुर्भाग्य से यह सब भारत के खनिज सम्पदा से भरे क्षेत्रों में नहीं हुआ. नक्सल प्रभावित क्षेत्र अथवा खनिज सम्पदा से भरे क्षेत्र के लोग आर्थिक और सामाजिक तौर पर पिछरे हैं तो यह अनायास नहीं है. दरअसल जब गंगा, जमुना, रावी, और गोदावाई जैसी और हीं नदियों के किनारे बसे लोग नदी तट के उपजाऊ भूमि से लाभान्वित हो कर विकास की राह पर आगे बढ़ रहे थे तब आज के आदिवासी क्षेत्र जंगल के जीवन से निकल भी नहीं सके थे. क्योंकि अनुपजाऊ भूमि होने के कारण वे कृषि पर निर्भर नहीं हो सकते थे. उन्हें अपने जीवन यापन के लिए जंगल में उगने वाले कंद-मूल का हीं सहारा था. परिणामस्वरूप जब मैदानी भाग के लोग आर्थिक और सामाजिक रूप से परिवर्तन के कई चक्र से निकल चुके थे, तब तक आदिवासी सभ्यता के प्रथम प्रतिक शरीर ढकने के लिए कपडे के प्रयोग से भी अनजान थे. समय का चक्र बदला और सभ्य समाज ज्ञान से विज्ञान की दिशा में चल पड़ा. विश्व ने औद्योगिक क्रांति भी देखा और जीवन के तौर तरीकों में आमूल परिवर्तन आया. लेकिन ज्ञान से विज्ञान के इस यात्रा में जो सर्वाधिक विशिष्ट बात है वह ये कि सभ्य समाज को पहली बार अनुपजाऊ और असभ्य लोगों से भरे जंगलों से जुड़ने की जरूरत महसूस हुई. बड़ी तेजी से परिभाषाओं का परिवर्तन हुआ और जंगल, पठार और रेगिस्तान महत्वपूर्ण हो गए. इस महत्व ने अरब देशों की किस्मत बदल दी लेकिन भारत में यह त्रासदी बन गयी.
जब झारखण्ड, उड़ीसा, और छत्तीसगढ़ तथा अन्य जगहों पर खनिज पदार्थों के बहुतायत की बात सामने आई तो वहां बाहरी लोगो का आवागमन बढ़ा. ऐसे में आदिवासिओं का पहली बार बाहरी लोगो से जुड़ाव हुआ. वास्तव में यह एक मौका था आदिवासी और गैरआदिवासी का फर्क मिटाने का लेकिन व्यवस्था की अदूरदर्शिता के कारण ऐसा नहीं हो सका. बाहरी लोगो के आगमन ने आदिवासियों को पेड़ की छाल की जगह कपडा पहनने को प्रेरित (या यों कहें की मजबूर) तो जरूर किया लेकिन कपड़ा खरीदने के स्रोत नहीं आये. जंगल के जंगल साफ़ करके नए शहरों , कस्बों को बसाया गया ऐसे में कंद- मूल की जगह चावल, गेहूं जैसे अनाज हीं उनका भी मुख्य खाद्य पदार्थ तो बन गया लेकिन उनके लिए यह उपलब्ध नहीं हो सका. जहाँ जंगलों के उत्खनन ने उनसे पारंपरिक जीवन को छीन लिया वहीँ उनके आधुनिक जीवन पद्धति का कोई भी सुख मयस्सर नहीं हुआ.
कोयला को काला हीरा ऐसे हीं नहीं कहते. इस कोयले की बदौलत कोल इंडिया भारत का दूसरा सबसे बड़ा नियोक्ता है. इस कोयले की बदौलत झारखण्ड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ के निर्जन वन में सैकडों स्कॉर्पियो, बोलेरो और दूसरी गाड़ियाँ दौडती हैं. इस कोयले के खेल के माहीर खिलाडी करोडो और अरबों में खेलते हैं और कोल माफिया कहलाने में गौरव महसूस करते हैं. लेकिन यही कोयला इन आदिवासिओं को दो वक्त की रोटी और एक साबूत छत नहीं दे पाया. इनके हिस्से आया महुआ का पेड़ और मिटटी की रिसती हुई झोपड़ी! कहना न होगा कि औद्योगिक क्रान्ति इनके लिए मुसीबतों के अतिरिक्त कुछ नहीं लायी.
यद्यपि संविधान ने आदिवासी बहुल क्षेत्रों को संसद तथा विधान सभा में आदिवासी लोगो के प्रतिनिधित्व के लिए सीटें आरक्षित भी किया है. लेकिन इसका कोई भी लाभ उन्हें नहीं मिला है. जहाँ दलित नेताओं ने तमाम कमियों के बावजूद दलितों के सामजिक उत्थान के लिए कुछ न कुछ किया है. वहीँ आदिवासी नेताओं ने सिर्फ संसदीय भ्रष्टाचार और हर तरह की राजनीतिक गन्दगी के नाले में जमकर डूबकी लगाईं है. उदाहरण के लिए शिबू सोरेन का हीं नाम लें. शिबू राजनीति में आने के पहले आदिवासिओं के नायक थे. उन्होंने शराब के खिलाफ अभियान चलाया था. सूदखोर महाजन उनके नाम से कांपते थे. अपनी पूरी जवानी आदिवासियों के उत्थान और उनके मध्य फैले अंधविश्वास को मिटाने में बिताने के बाद शिबू नायक से राजनेता बने तो दिल्ली की हवा ऐसी लगी कि संसद में वोट के बदले नरसिम्हा राव सरकार से पैसे लेकर लोकतंत्र को कलंकित किया. इस राज को छुपाने के लिए उनपर अपने हीं सचिव शशिनाथ झा के हत्या का भी आरोप लगा और इसमे उन्होंने जेल भी काटा. मधु कोड़ा की कहानी नयी है और इस बारे में अधिक कुछ बताने की जरूरत नहीं समझता. कभी कभी मुझे ऐसा लगता है कि हमारे संसद और विधानसभाओं के दीवारों को बनाने में ईंट, सीमेंट, बालू के साथ किसी ऐसे तत्व का भी प्रयोग हुआ है जिसके संपर्क में आते हीं नेताओं में भ्रष्टाचार के कीटाणु का प्रवेश हो जाता है. पुलिस के साथ मिलकर छुटभैये नेता भी आदिवासियों पर हीं अत्याचार करने लगे. पुलिसिया अत्याचार के बारे में तो बस आप इतना हीं अंदाजा लगा लें कि जब चंडीगढ़ जैसे शहर में एक उच्च मध्यवर्गीय परिवार की रुचिका को न्याय के लिए २० सालों तक प्रतीक्षा करना पड़ा और उस तथाकथित बहुप्रचारित न्याय को देखने के पहले उसने पुलिस के दमन से आहात होकर आत्महत्या कर लेना अधिक उचित समझा तब मीडिया से दूर अनपढ़ और निरीह आदिवासियों पर किस तरह के और किस हद तक पुलिसिया अत्याचार होते होंगे यह तो मात्र कल्पना कर के हीं आत्मा तक सिहर जाती है. पुलिस इन इलाकों में वर्षों अत्याचार का पर्याय रही है.
कहना न होगा कि इन आदिवासी बहुल क्षेत्रो में लोकतंत्र कि रौशनी नहीं पहुंची और लोकतंत्र यहाँ असफल रहा. जब निरंकुश शासन तंत्र अथवा तानाशाही असफल होता है तब लोकतंत्र का जन्म होता है. लेकिन जब लोकतंत्र असफल होता है तो निराशा और विकल्पहीनता का जन्म होता है. और ऐसे में अराजकता का माहौल बनता है. यही अराजकता आज हमारे यहाँ नक्सलवाद या माओवाद के नाम से उदित हुआ है. ये माओवादी नेता हैं जिन्होंने इन आदिवासिओं को बताया है कि वे कोई परग्रह प्राणी नहीं हैं बल्कि इसी मिट्टी के बने हैं. इन्हें जो पहचान और अस्तित्व मिला है वह इस लिए कि आज वे हथियार लेकर उठ खड़े हुए हैं. आखिर लोकतंत्र को बहकाने की जिम्मेवारी उनपर क्यों जिन्हें लोकतंत्र की रौशनी से हमेशा दूर रखा गया. अब फिर “कानून व्यवस्था का राज” और “लोकतंत्र” अपना सन्दर्भ खोता है तो खो दे, लोकतंत्र की चिंता उनलोगों ने भी नहीं कि जो लोकतंत्र के नाम पर सत्ता पर एकाधिकार कर बैठे. लेकिन यह तो सिक्के का एक पहलू है.
ऊपर कहे गए शब्द नक्सलवाद को न्यायसंगत ठहराने की कोशिश नहीं बल्कि माओवादी नेताओं के पीछे, आदिवासियों के खड़े होने की स्वाभाविकता को न्यायसंगत ठहराने की कोशिश है. आदिवासी मासूम हैं तो इसका अर्थ यह कतई नहीं कि उनके माओवादी नेता भी मासूम हैं. माओवाद साम्यवाद अथवा कम्युनिज्म का हीं एक अतिवादी रूप है. माओवाद लोकतंत्र के लिए कितना खतरनाक हो सकता है इसके लिए मैं एक उदाहरण देना चाहूँगा. स्वतंत्रता के बाद जब देश में लोकतंत्र लागू हुआ तब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा था कि हम लोकतन्त्र को नहीं मानते और जब भी और जहाँ भी मौक़ा मिलेगा हम लोकतंत्र को कमजोर करने और साम्यवाद को मजबूत करने की कोशिश करेंगे. पश्चिम बंगाल में सत्ता प्राप्ति के बाद वाम मोर्चा ने ऐसा हीं किया भी. आज बंगाल में वाम मोर्चा ने जनता से जुडी हर एक संस्था का राजनीतिकरण कर दिया है. लगभग तीस वर्षों तक लोकतंत्र पदच्युत रहा है बंगाल में. लोकतंत्र में हिस्सा लेने वाले साम्यवादियों को हम उदार साम्यवादी के श्रेणी में रख सकते हैं. जब उदार साम्यवाद इतना खतरनाक है तो फिर उग्र साम्यवाद जो कि माओवाद कहा जाता है वह कितना खतरनाक हो सकता है यह सोचने और समझने की जरूरत है. कम्युनिस्टों की जवाबदेही देश से अधिक विचारधारा के लिए हीं हमेशा रही है. दुसरे विश्वयुद्ध के समय जब नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने जर्मनी, जापान और इटली जैसे देशों के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ जंग का एलान किया तो उसके विरोध में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र में एक कार्टून प्रकाशित हुआ था जिसमे हिटलर के हाथ में एक कुत्ते की डोर थी और कुत्ते के मुंह की जगह नेताजी सुभाष का चेहरा लगा हुआ था. नेताजी का अपराध इतना हीं था कि सोवियत रूस तब इंग्लैंड को समर्थन दे रहा था और नेताजी इंग्लैंड के खिलाफ देश की आज़ादी के लिए लड़ रहे थे. एक और उदाहरण है जो इससे भी अधिक शर्मनाक है. भारत - चीन युद्ध के समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कुछ नेताओं ने भारतीय सैनिकों के लिए रक्तदान शिविर का आयोजन किया था जो कि ज्यादातर कम्युनिस्ट नेताओं को पसंद नहीं आया (क्योंकि चीन एक कम्युनिस्ट देश था और कम्युनिस्ट देश के विरोध में लड़ाई को समर्थन देना कम्युनिज्म से धोखा करने जैसा था) और उन लोगो ने बगावत कर एक नई पार्टी का गठन किया जिसे हम भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) या माकपा के नाम से जानते हैं. ज्यादा दिलचस्प यह जानना होगा कि भारतीय सैनिकों के लिए रक्तदान शिविर का विरोध करनेवाला धड़ा आज अधिक मजबूत है. केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा तीनो हीं कम्युनिस्ट शासित प्रदेश में सरकार माकपा के नेतृत्व में हीं है.
माओवाद चीज क्या है , इसे समझने के लिए आप एक कल्पना करिए. हम हमेशा पढ़ते और देखते हैं कि प्रसिद्ध समाजसेवी तथा लेखिका अरुंधती रॉय माओवादी के नियंत्रण वाले क्षेत्रों में जाती हैं उन्हें उत्साहित करती हैं और वापस दिल्ली तथा अन्य शहरों में आकर माओवादियों को न्यायसंगत ठहराती हैं तथा भारत सरकार के लिए यथासंभव कटु शब्दों का प्रयोग करती हैं. आप थोडा विपरीत सोचें, अरुंधती रॉय माओवादियों के गढ़ में जाती हैं, वहां माओवादियों को गलत और सरकार को सही ठहराने की कोशिश करती हैं. अगला दृश्य क्या होगा? क्या अरुंधती दिल्ली लौटकर कोई साक्षात्कार दे पाएंगी? शायद आप सबको चीन के थेन्यमन चौक पर टैंक से कुचल दिए गए युवक याद आ रहे होंगे. लोकतंत्र कम से कम सार्वजनिक तौर पर आपको विरोध करने और काफी हद तक परिस्थितियों को बदलने का मौका तो देती है. लेकिन माओवाद.............
वास्तविकता यह है कि माओवादी नेताओं का अपना एक अजेंडा है - भारत में खुनी क्रांति के रास्ते कम्युनिज्म या साम्यवाद को पदस्थापित करना. खुनी क्रांति के लिए उन्हें सेना की जरूरत है और यही एक रिश्ता है उनका गरीब आदिवासियों से. इससे अधिक कुछ नहीं. याद आता है नक्सलवाद के आदिपुरुष चारू मजुमदार के शब्द - चीन का चेयरमैन (माओ) हमारा भी चेयरमैन. चारू मजुमदार और उनके साथियों ने तो ट्रेनिंग भी चीन में हीं ली थी. कोई आश्चर्य नहीं कि उनकी फंडिंग चीन से भी होती हो.
तो फिर समाधान क्या है. मैं कहता हूँ, कोई समाधान हीं नहीं है. क्या सरकार माओवादी नेताओं से बात करेगी? अव्वल तो माओवादी बात करने को तैयार नहीं होंगे (क्योंकि उन्हें आदिवासियों के दशा में सुधर करना नहीं है बल्कि व्यवस्था बदलना है) और अगर बात किया भी तो ऐसी शर्त रखेंगे जो संभव हीं नहीं. तो क्या सरकार माओवादी नेताओं को अलग रखकर आदिवासियों से बात करेगी. लेकिन वे न तो सरकार पर भरोसा करेंगे, न कथित मानवाधिकार संगठनो पर जो सिर्फ इस बात के लिए अमिताभ बच्चन पर मुकदमा दायर कर देते हैं हैं कि वे अपनी पुत्रवधू ऐश्वर्या से बेटे की अकांक्षा क्यों रखते हैं बेटी की क्यों नहीं. माओवाद के साथ आदिवासी इतने कदम चल पड़े हैं कि अब हम उनके पीछे लौटने की बात सोच बड़ा मुश्किल है.
अब जबकि फैसला हथियार से हीं होना है तो क्या होगा ? क्या सरकार लोकतंत्र के नाम पर आदिवासियों को लाश के ढेर में बदल देगी या फिर उस वक्त तक प्रतीक्षा करेगी जब तक देश के एक बड़े हिस्से को माओवादी, स्वायत्त क्षेत्र बनाने की मांग करे या फिर उस वक्त तक जब तक कि देश में लोकतंत्र स्वप्न हीं बन जाए ? प्रत्येक परिस्थिति में लोकतंत्र का हीं चीरहरण होने जा रहा है.
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