बिहार मे चुनाव का त्योहार है। अफवाहों और विश्लेषण
का बाजार गर्म है। दिल्ली- एनसीआर मे पत्रकारिता करने वाले लोग पटना के टैक्सी
ड्राईवरों से दो सवाल पूछकर पन्ने भर का लेख लिख रहे हैं। ऐसे मे जन्म से बिहारी
होने के नाते हम भी दो आना का विश्लेषण तो करेंगे ही।
सवर्ण(भूमिहार, राजपूत,
ब्राह्मण, कायस्थ) इस चुनाव मे भाजपा की तरफ हैं जो बिहार की
कुल आबादी का लगभग 14% हैं। इसके अतिरिक्त पासवान और वैश्य समाज भी भाजपानित
गठबंधन को बड़ी संख्या मे वोट दे रहे जो बिहार की कुल जनसंख्या 11% हैं।
महागठबंधन की बात करें तो यादव,
कुर्मी और मुसलमान उनके आधार वोट हैं जो बिहार की कुल आबादी का लगभग 30% हैं।
इसतरह भाजपा का आधार वोट (सवर्ण, पासवान, वैश्य) जहां 25% है वहीं महागठबंधन का आधार वोट 30%
का है। इसतरह आधार वोटों के मामले मे महागठबंधन को भाजपा से लगभग 5 अंको की बड़ी बढ़त
हासिल है।
ऐसा नहीं कि सारे आधार वोट एक ही जगह गिरेंगे।
उदाहरण के लिए, सारण क्षेत्र मे जहाँ प्रभुनाथ सिंह का प्रभाव है,
राजपूत राजद को भी वोट देते दिखेंगे। कम-से-कम 3 सीटों पर भूमिहार जद(यू) को और
इतनी ही सीटों पर ब्राह्मण कांग्रेस को वोट दे सकते हैं। सीमांचल मे कुछ सीटों पर
लोजपा मुस्लिम वोट पा सकती है। भाजपा दर्जन भर सीटों पर यादवों का ठीक-ठाक वोट
प्राप्त करेगी वहीं कुर्मी ‘हम’ के वृषणी पटेल और शकुनि चौधरी के प्रभाव मे भी कुछ
सीटों पर वोट करेंगे।
ऊपर के विश्लेषण मे हम देखते हैं कि बिहार के
मतदाताओं का कुल 55% तो दोनों मुख्य गठबंधनों का आधार वोटर है। जबकि 45% वोटर की
निष्ठा राज्यव्यापी स्तर पर इस समय किसी दल से नहीं है। इन 45% मतदाता मे से महादलित
लगभग 10% है जिनमें रविदास, धोबी और मुसहर मुख्य कहे जा सकते हैं। मगध मे तो
मुसहरों ने राजग के लिये वोट किया है लेकिन बाकी हिस्सों मे उनका वोटिंग पैटर्न
क्या होगा यह अभी देखना बाकी है। धोबी मतदाता महागठबंधन के साथ ही जाएगा। जबकि
रविदास दोनों तरफ वोट कर सकते हैं। ओबीसी से कुशवाहा (4%) हैं जो परंपरागत रूप से कुर्मियों
के साथ वोट करते रहे हैं लेकिन इसबार आश्चर्यजनक रूप से वे भाजपा के लिए भी वोट कर रहे हैं जिसमें उपेंद्र
कुशवाहा का योगदान माना जा सकता है। उनका बराबर मत दोनों तरफ जाने की संभावना है। इबीसी
(अति पिछड़ा वर्ग) से निषाद (5%) हैं जो 2014 मे भाजपा के साथ थे। इसबार भी निषाद
पूरी तरह भाजपा के पक्ष मे झुके दिखते हैं। इसके बाद आती है बारी इबीसी (अति पिछड़ा
वर्ग) मतदाताओं की जो 55 जातियों का समूह है जिनकी संख्या 28-30% है। बिहार मे
इसबर राजनीतिक निर्णय इन्हीं इबीसी समूह के हाथ है। इन 55 जातियों मे निषादों का
एक जातीय उप-समूह है(5%) जो 2014 के लोकसभा चुनाव मे भाजपा के साथ खड़ा था और इस
बार भी भाजपा के साथ ही है। इसके बाद इनमें तेली बिरादरी(2%) है जो गुजरात के
घांची जाति के समकक्ष है और पूर्णरूपेण भाजपा के साथ है। तेली और निषाद के बाद
इबीसी मे कोई भी जाति 1% से अधिक नहीं है संख्याबल के मामले मे। इनकी कुल आबादी
21% से 23% है। इनमें आते हैं कानू, गोंड, कुम्हार, लोहार, माली, बढ़इ, नाई, पनवारी, नोनिया, कलवार इत्यादी। इनका जातियों का कोई राज्यव्यापी
नेता नहीं होता हैं। ऐसा नहीं की ये इबीसी एक समूह के तौर पर वोट करती हैं। ऐसा भी
नहीं कि इनमे से कोई एक जाति पूरे राज्य मे एक पैटर्न पर वोट करती है। इनमे से कुछ
जातियाँ कस्बाई हैं और छोटे-मोटे व्यापार पर निर्भर हैं और कुछ जातियाँ ग्रामीण
हैं। हर इलाके(3-4 ग्राम) मे इन जातियों का कुछ घर होता है। इनके वोटिंग पैटर्न का
अंदाजा भी वोट के बाद ही लगता है नतीजों से। क्योंकि इनका इलाका होता नहीं इसलिए ये
जातियाँ मुखर नहीं होती। 1995 के चुनाव तक इनमें लालू के पक्ष मे वोट देने का
पैटर्न था। लेकिन उसके बाद इबीसी बिरादरी नितीश और भाजपा के साथ जुड़ी। कुर्मी
अपेक्षाकृत शांत और कृषक बिरादरी है और संख्याबल मे भी कम है,
जिसके साथ जाना इबीसी के कमजोर जातियों को दबंग यादवों के साथ जाने से बेहतर लगा।
2014 के लोकसभा चुनाव मे इबीसी का अच्छा खासा वोट भाजपा को मिला था लेकिन एक बड़ा
हिस्सा नितीश के साथ भी गया था। 2015 के विधानसभा चुनाव मे यह देखना दिलचस्प होगा
कि नितीश को 15 वर्षों से समर्थन दे रही इबीसी बिरादरी उनके साथ रहती है या अलग
रास्ता देखती है। नितीश के शासन मे इबीसी लाभान्वित भी हुआ लेकिन वह लाभ उसे तब
नहीं मिलेगा जब राजद की भी सरकार मे हिस्सेदारी हो। जबकि 2014 मे भाजपा को वोट
देने वाले इबीसी वोटर महागठबंधन के पाले मे चले जायें इसकी संभावना थोड़ी कम है।
भाजपा ने इबीसी उम्मीदवार बड़ी संख्या मे उतारे हैं।
दूसरे चरण के मतदान के पहले ही कहीं डॉ॰ प्रेम
कुमार तो कहीं रामेश्वर चौरसिया को सीएम उम्मीदवार बता कर भी इन जातियों को साधने
की कोशिश भाजपा द्वारा हो रही है। राजद और जद(यू) ने जितनी बड़ी संख्या मे यादव,
कुर्मी और मुसलमान उम्मीदवार उतारे हैं उससे इबीसी बिरादरी कहीं न कहीं सशंकित है।
बिहार मे मुस्लिम आबादी का स्वरूप कस्बाई अधिक है। भाजपा को इसी कारण कस्बों मे
इबीसी वोट मिलता रहा है और वह इसबार भी मिलेगा।
विकास का भी मुद्दा है। गुंडागर्दी और कानून-व्यवस्था
भी। 24 घंटे बिजली की हसरतें भी हैं। आंचलिक
मुद्दे भी हैं और महँगाई भी है। शराब की दुकानें जो नितीश राज मे हर गली मे खुली
और शिक्षा की बदहाली और शिक्षा मित्रों की दुर्दशा भी मुद्दा है। गो-ह्त्या भी एक
मुद्दा हो गया है जो सीमांचल मे बेहद संवेदनशील मुद्दा है।
हिन्दुत्व का भी मुद्दा है और भ्रष्टाचार का भी। लेकिन तय मानिए कि बिहार चुनाव का
सारा खेल इन्हीं 21-23% मतदाताओं के वोट के लिए है। इन्हीं स्वतंत्र मतदाताओं को
प्रभावित करने के लिए दोनों पक्ष बड़े बड़े दावे कर रही हैं। सारी कयावद इन्हीं को
अपने पाले करने के लिए है। इबीसी वोट जाएगा दोनों तरफ। लेकिन जिसको बड़ा हिस्सा
जाएगा वो जीतेगा। और कौन ले रहा इनका अधिक वोट यह जानने का तरीका अब तक तो ईजाद
हुआ नहीं है।
तो अगली बार बिहार चुनाव विश्लेषक से पूछिएगा कि कुम्हार
और लोहार किसे वोट दे रहा और माली गोंड के साथ वोट करेगा या अलग और क्यों?