Saturday, February 19, 2011

उतरा रंग सियार का

तो मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल का दूसरा प्रेस कांफ्रेंस वास्तव में सियार के पूँछ का रंग उतारने वाला हीं प्रमाणित हुआ. जो 'महान' संपादक मंडल वहाँ उपस्थित था, वैसे तो उसका धर्म प्रश्न रुपी रसायन से सियार के पूँछ का रंग उतारकर जनता के सामने लाना था लेकिन अपने चरित्र और स्वाभाव के अनुसार इन लोगो ने सियार के रंग को और पक्का करने की असफल कोशिश की. लेकिन यह अकाट्य तथ्य है कि सत्य सामने आकार हीं रहता है. जिस तरह बदल और कोहरे भगवान भास्कर के प्रकाश को धरा पर पहुँचाने से कुछ समय तक हीं रोक सकते हैं वैसे हीं भ्रष्ट पत्रकार कुछ समय तक हीं 10 जनपथ (सोनिया निवास) और 7 रेसकोर्स (प्रधानमंत्री निवास)की  सच्चाई को बहार आने से रोक सकते हैं.
जहाँ मनमोहन सिंह की पहली प्रेस कांफ्रेंस इस बात के लिए चर्चा में रही थी कि जब भी राहुल चाहें, वे प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफा दे देंगे. वहीँ इस बार उनके इस बयान के लिए चर्चित होने वाला है कि वे उतने भी दोषी नहीं हैं जितना प्रचारित किया जा रहा है.
यद्यपि दिमाग भरोसा करने को तैयार नहीं होता लेकिन मन के किसी कोने से आवाज आती है कि कहीं सचमुच हीं तो प्रधानमंत्री मासूम तो नहीं हैं. भला एक समझदार, ताकतवर, स्वाभिमानी और कुटिल (ये किसी भी व्यक्ति के प्रधानमंत्री जैसे पद पर आसीन होने कि प्राथमिक शर्तें हैं) व्यक्ति ऐसा कैसे कह सकता है कि कोई राजकुमार जब भी चाहें वह अपने पद का त्याग करने को तैयार हैं. कम से कम आधिकारिक तौर पर वह कैसे भूल सकते हैं कि प्रधानमंत्री चुनने का काम लोकसभा के सदस्य बहुमत से करते हैं और कम से कम औपचारिक तौर पर हीं सही वे जनता के द्वारा नियुक्त कि गए प्रधानमंत्री हैं न कि रोम वाली गोरी मैडम के द्वारा. लेकिन सवाल है कि मनमोहन सिंह के रीढ़ कि हड्डी इतनी सख्त भी होती तो क्या इस जन्म में वे प्रधानमंत्री बन सकते थे?
मनमोहन सिंह ईमानदार हैं’. यह बहुप्रचारित लाइन है. यहाँ तक कि विपक्ष ने भी मनमोहन पर व्यक्तिगत तौर पर शायद हीं कभी किचर उछाला हो और 'मुख्यधारा' की मीडिया तो खैर कांग्रेस की प्रवक्ता हीं है. लेकिन मेरी समझ में नहीं आता है कि यदि वे व्यक्तिगत रूप से ईमानदार हैं भी और इन घोटालों में उनका कोई हिस्सा नहीं है. तो इससे इस सम्पूर्ण लूटतंत्र की कहानी में किस तरह का फर्क  और कहाँ आ जाता है?
मनमोहन किसी फैक्ट्री के सुरक्षा कर्मचारियों के उस प्रभारी के तरह हैं जो किसी भी चोरी में कोई हिस्सा तो नहीं लेते लेकिन वे किसी भी सुरक्षा कर्मचारी के चोरी को इसलिए रोकने कि कोशिश नहीं करते कि अन्य सुरक्षा कर्मी उन्हें अपना प्रभारी मानने से इनकार कर देंगे. आपको मेरी बात अस्वाभाविक लग सकती है लेकिन खुद मनमोहन सिंह भी तो अपनी स्थिति इससे बेहतर नहीं बताते. अब आप बताइए कि ऐसे सुरक्षाकर्मी को अपने गाँव, दुकान, फैक्ट्री, या घर में लगाना पसंद करेंगे? कोई भी यही कहेगा कि ऐसी इमानदारी लेकर चाटें जबकि माल चोरी हो हीं जाना है? दुर्भाग्य है देश का कि जिसे कोई अपना चौकीदार नहीं रखना चाहेगा वह इस देश का प्रधानमंत्री है. यही वो सवाल है जो मीडिया को पूछना तो चाहिए लेकिन वो पूछेगी नहीं.
मनमोहन ने प्रेस कांफ्रेंस, जो कुछ कहा है उसपर विचार करें तो बड़ी विचित्र परिस्थिति बनाती है. उन्होंने स्पष्ट स्वीकार किया है कि २G घोटाले का उन्हें अनुमान था. लेकिन गठबंधन धर्मं के कारण इसे स्वीकार कर लिया. वे यह भी कहते हैं कि राजा उनके कारण नहीं बल्कि करूणानिधि के आदेश पर मंत्री बनाये गए थे. यहाँ यह विचारणीय तथ्य है कि राष्ट्रपति प्रधानमंत्री के सलाह पर मंत्रियों कि नियुक्ति करते हैं. संसदीय शासन प्रणाली में सीधे तौर पर कहें तो, मात्र प्रधानमंत्री को हीं यह अधिकार है कि वह राष्ट्रपति को यह कहे कि मंत्री कौन होगा और राष्ट्रपति उसके सलाह को स्वीकार करने को मजबूर है. अर्थात प्रत्येक परिस्थिति में मंत्री वही होगा जिसे प्रधानमंत्री चाहेंगे और यह संविधानिक व्यवस्था है. निस्संदेह गठबंधन की सरकारों में सहयोगी दल अपने मंत्री अपने अनुसार हीं चुनते हैं और ऐसा वाजपेयी जी के समय में भी हुआ हीं होगा. किन्तु प्रश्न यह है कि प्रधानमंत्री सार्वजनिक तौर पर ऐसा कैसे कह सकता है कि मंत्री उसकी मर्जी से नहीं चुना गया है.
यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि डीएमके और कांग्रेस का गठबंधन चुनाव के पश्चात नहीं हुआ है बल्कि यह चुनाव पूर्व गठबंधन है. अर्थात मनमोहन सिंह जनता के पास जनादेश मांगने करूणानिधि को लेकर हीं गए थे. और उन्हें पूर्ण बहुमत मिला था. फिर यह रोना क्यों कि गठबंधन की सरकार है इसलिए देश लुटाने कि स्वतंत्रता है? यदि गठबंधन इतना हीं मजबूर कर देता है मनमोहन को तो, उन्हें अकेले जाना चाहिए था जनता के पास और कहना चाहिए था कि भाई हमें अकेले का बहुमत दोगे तो हीं साफ़ सुथरी सरकार दे सकेंगे. फिर चुनाव के पश्चात गठबंधन हुआ होता तो कह सकते थे कि जनता ने हीं मजबूर कर दिया. यहाँ यह जान लेना बेहद आवश्यक है कि 2004 के कांग्रेस-डीएमके की डील को मनमोहन सिंह ने हीं अंतिम रूप दिया था और एक तरह से वे इस बेमेल समझौते के आर्किटेक्ट थे. बेमेल इसलिए कि इन्द्र कुमार गुजराल की शिशु सरकार इसलिए गयी कि डीएमके के नेताओं पर राजिव गाँधी के हत्या की साजिश का आरोप था और डीएमके का जन्म हीं कांग्रेस के कथित उत्तर भारतीय राजनीति के विरुद्ध हुआ था.  
मनमोहन यह भी कह सकते थे कि देश के बड़े फायदे के लिए कभी कभी छोटे समझौते करने हीं पड़ते हैं. लेकिन कहीं से भी ऐसा दिखता नहीं है कि मनमोहन, देश के किसी बड़े फायदे के लिए अथवा अपनी विचारधारा को विस्तार देने के लिए अथवा किसी सामाजिक-आर्थिक उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए रजा जैसों  और कलमाड़ी जैसों को सहन कर रहे हैं. उनकी कोई राजनीतिक विचारधारा तो हैं हीं नहीं लेकिन अर्थनीति को लेकर भी मनमोहन कोई अटल सोच रखते हों ऐसा नहीं है. इंदिरा, राजीव और चंद्रशेखर के समय में वे समजवादी थे तो नरसिम्हा के दौर  में उदारवादी बने और अब सोनिया माइनो (गाँधी) के दौर में पूंजीवादी हो गए हैं.
कहने का तात्पर्य यह कि ऐसा कोई भी उचित कारण, उद्देश्य अथवा परिस्थिति नहीं नजर आता है जिसके लिए मनमोहन को ए. राजा को 1,72,000,000,00,00 रुपये लूटने कि छूट दे देनी चाहिए. आखिर मनमोहन यह कैसे भूल सकते हैं कि वे इंडिया के साथ-साथ एक ऐसे भारत के प्रधान मंत्री भी हैं जहाँ कि 70 प्रतिशत जनता, उन्ही के सरकार के आंकड़ों के अनुसार 20 रुपये प्रतिदिन के आय पर गुजारा करती है. और फिर 2G अकेला तो नहीं है उसके साथ श्री कलमाड़ी जी के कॉमनवेल्थ घोटाला से लेकर मनरेगा तक में लूट भी तो शामिल हैं. और नवीनतम अलंकरण तो देवास के साथ हुआ करार है जिसमे प्रधानमंत्री सीधे तौर पर शामिल हैं. 
वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय ने एक समाचार चैनल से बातचित में कहा कि प्रधानमंत्री सादगी और निश्चलता का चादर ओढ़े है ताकि इन घोटालों के दाग उनपर न पड़े. मैं प्रार्थना करता हूँ कि ऐसा हीं हो, वरना जितना सरल, विनम्र और सात्विक उन्हें बताया जाता है यदि वे वैसे हीं हैं तो इश्वर हीं जानता है कि वे अमेरिका और चीन के घाघ नेताओं से क्या बात करते होंगे.
देश में ऐसी दुर्भाग्यजनक परिस्थिति स्वतंत्रता के पश्चात कभी नहीं आई. यहाँ तक कि चौधरी चरण सिंह और चंद्रशेखर के ज़माने में भी नहीं. 120 करोड जनसँख्या वाला देश जैसे नेतृत्वविहीन है. कहने को एक प्रधानमंत्री तो है लेकिन उसकी जवाबदेही देश को न होकर सोनिया माइनो (गाँधी) को है. और यह स्वाभाविक हीं है सभी लोगो की जवाबदेही तो अपने नियोक्ता के प्रति हीं होती है न....तो मनमोहन की भी है.
स्पष्ट है, श्री लाल बहादुर शास्त्री के बाद अथवा उनसे भी अधिक ईमानदार प्रधानमंत्री होने का उनकी पार्टी का, मीडिया का और यहाँ तक कि विपक्ष का भी, दावा पूरी तरह खोखला है. लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि इस दावे कि पोल कौन खोले? याद आता है जब राजिव गाँधी प्रधानमंत्री बने थे तो उने मिस्टर क्लीन का नाम दिया गया था लेकिन मात्र 63 करोड के बोफोर्स घोटाले में ऐसे बदनाम हुए कि भ्रष्टाचार के कारण चुनाव हारने वाले पहले प्रधानमंत्री बने. और उस दौर में यह सारी सच्चाई सामने आई तो रामनाथ गोयंका जैसे साहसी प्रकाशक और 'इंडियन एक्सप्रेस' और 'जनसत्ता'  के जैसे अखबारों के कारण. 
भले हीं आज के घोटालों के सामने बोफोर्स बचकाना हो गया हो और आज कई रामनाथ गोयंका  और 'इंडियन एक्सप्रेस' और 'जनसत्ता' की  आवश्यकता हो लेकिन यहाँ तो बरखा दत्त, वीर संघवी और प्रभु चावला जैसों की बयार और बहार है जिनका पेशा हीं सत्ता कि दलाली है. ऐसे में उन्हें नंगा कौन करे जो कालिख के ऊपर झक्क खादी लगाये हैं?

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