Saturday, August 24, 2013

मौलाना के राज में

जजिया कर दे कर ही सही किन्तु तीर्थयात्रा पर तो हिंदु औरंगजेब के शासनकाल में भी जाते ही थे. भारत के ज्ञात इतिहास में संभवतः ऐसा कोई अवसर न आया होगा जब हिन्दू संतों को धर्मनगरी अयोध्या के परिक्रमा से भी रोका गया हो. चौरासी कोस परिक्रमा की परंपरा युगों से चली आ रही है. हिन्दू धर्म में इसका एक विशेष महत्व है. साधू-संत जिन रास्तों से होकर परिक्रमा करना चाहते हैं वही परिक्रमा का पारंपरिक रास्ता है. जिन चालीस पड़ावों पर परिक्रमा करते हुए संत रुकेंगे, वे सभी युगों से चले आ रहे परंपरा में निश्चित पड़ाव हैं. रही बात परिक्रमा के समय के शास्त्रोचित होने का तो यह तो अपने आप में हास्यास्पद है और सपा सरकार का सूरज को दिया दिखने जैसा दुस्साहस है. आखिर सरकार किस अधिकार से विभिन्न धर्मपीठों के महंतों और शंकराचार्यों से यह प्रश्न कर रही है कि परिक्रमा के लिए यह समय शास्त्रोचित है अथवा नही? शास्त्रोचित होने का निर्णय धर्माचार्य करेंगे या सरकार करेगी? और यदि शास्त्रोचित नहीं भी हो तो सरकार को इसमें भला क्यों हस्तक्षेप करना चाहिए?
17 अगस्त को विश्व हिन्दू परिषद के वरिष्ठ मार्गदर्शक श्री अशोक सिंघल के नेतृत्व में संतों का एक प्रतिनिधि मंडल उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव तथा उनके पिता और प्रदेश के ‘महामुख्यमंत्री’ मुलायम सिंह यादव से मिला. अन्य बातों के अतिरिक्त प्रतिनिधि मंडल ने पूर्व घोषित चौरासी कोस परिक्रमा की औपचारिक जानकारी सरकार को दी और उचित प्रशासनिक प्रबंध का अनुरोध किया. जैसा की श्री अशोक सिंघल ने बताया है कि उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री और उनके पिता का इस मुद्दे पर रुख सकारात्मक था और उन्होंने उचित प्रशासनिक व्यवस्था का आश्वासन भी दिया था. लेकिन ‘यू टर्न’ के लिए जगत कुख्यात ‘नेताजी’ शीघ्र ही पलट गए. उचित प्रशासनिक प्रबंध को कौन कहे उन्होंने तो परिक्रमा पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया.
परिक्रमा पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए उत्तरप्रदेश की सरकार ने जो आधार बताया वह स्वयं में घोर आपत्तिजनक और संतों का अपमान करने वाला है. 20 दिन की इस यात्रा में देश के 40 में से 36 प्रान्तों के संत हिस्सा लेंगे. एक प्रान्त के संत मात्र एक दिन यात्रा करेंगे. इस प्रकार अधिकाधिक 200 संत प्रत्येक दिन पदयात्रा में हिस्सा लेंगे. सरकार का यह कहना कि संतों के यात्रा से कानून-व्यवस्था का संकट खड़ा होगा, अपने आप में हैरान कर देने वाला है. क्या हिन्दू संत हिंसक प्रवृति के हैं? क्या इन संतों का कोई आपराधिक रिकार्ड है? क्या प्रयाग में हुए कुम्भ में संतों ने कोई भडकाऊ भाषण दिए थे? क्या वहाँ उन्होंने किसी प्रकार से शासन व्यवस्था के लिए कोई समस्या खड़ी की थी? आखिर यह मान लेने का आधार क्या है कि चौरासी कोस परिक्रमा से कानून-व्यवस्था का संकट खड़ा होगा? और कानून-व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर देश में हिंदुओं के मौलिक अधिकार को कैसे छिना जा सकता है? होने को तो उत्तरप्रदेश में प्रत्येक माह कोई दंगा होता है. ये दंगे किन धार्मिक परिक्रमाओं का परिणाम हैं? दंगे तो इस देश में प्रत्येक मुहर्रम पर हुए हैं. लेकिन ताजिया निकलने की परंपरा तो निर्बाध जारी है. निस्संदेह कानून-व्यवस्था बनाये रखना राज्य सरकार का कर्तव्य है (जिसके पालन में समजवादी पार्टी की सरकार अबतक पूर्णतया विफल रही है). लेकिन इस नाम पर वह हिंदुओं के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं कर सकती.
देश के शक्तिशाली ‘सेकुलर’ बुद्धिजीवी वर्ग का परिक्रमा के विरोध में इस आधार पर वातावरण खड़ा करना कि इसपर राजनीति होगी, कम हास्यास्पद नहीं है. इस देश में तो राजनीति फिल्मों पर होती है, पुस्तकों पर होती है, नाटकों के मंचन पर होती है, समाचारपत्रों में छपे लेख पर भी होती है. पड़ोसी देश बांग्लादेश में किसी दुर्दांत अपराधी को मृत्युदंड मिलने पर भी होती है और डेनमार्क के किसी विवादित और अनदेखे कार्टून पर भी होती है. अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका टाइम्स के कवर स्टोरी पर भी होती है और सलमान रुश्दी जैसे लेखकों पर भी होती है. चीन के घुसपैठ पर होती है तो पाकिस्तानी सेना द्वारा भारतीय सैनिकों के हत्या पर होती है. बाढ़ पर भी होती है और सूखे पर भी होती है. और तो और बर्मा के आतंरिक झगडों पर भी होती है. तो प्रश्न है कि राजनीति से बचने के लिए आखिर किन-किन चीजों पर प्रतिबन्ध लगेगा? और एक लोकतान्त्रिक देश में राजनीति नहीं होगी तो क्या होगा? ऐसी हर एक बात जिससे जनमत प्रभावित होगा उसपर राजनीति होगी ही. यद्यपि गन्दी राजनीति से बचना चाहिए जिसे मुलायम बढ़ावा दे रहे हैं.
मात्र 200 संतों की परिक्रमा को रोकने के लिए हजारों की संख्या में सुरक्षाबल तैनात कर देना कहीं से भी स्वाभाविक नहीं लगता. वस्तुतः देश की राजनीति जिस दिशा में जा रही है, उसमे मुलायम को यह अंदेशा है कि उनका मजबूत मुस्लिम वोटबैंक कांग्रेस की तरफ जा सकता है. इस नुकसान को रोकने के लिए वे पुनः अपने मौलाना वाले अवतार में जाना चाहते हैं और अपनी राजनीति साधने के लिए हिन्दू संतों को एक प्रकार से दंगाई घोषित करने पर तुले हुए हैं.
उल्लेखनीय है कि प्रस्तावित चौरासी कोस परिक्रमा विश्व हिन्दू परिषद के तत्वाधान में होने जा रही है. विश्व हिन्दू परिषद का यह घोषित एजेंडा है कि वे अयोध्या में रामजन्मभूमि पर भव्य मंदिर का निर्माण चाहते हैं. चौरासी कोस परिक्रमा और आगे के कार्यक्रमों में विश्व हिन्दू परिषद इसके लिए जनमत जुटाने का प्रयास करेगी. मंदिर के लिए जनमत खड़ा करना कोई गैरकानूनी कार्य नहीं है. विश्व हिन्दू परिषद नब्बे के दशक में भी मंदिर के समर्थन में जनमत खड़ी कर चुकी है. रामजन्मभूमि पर मंदिर पुनर्निर्माण के लिए विगत 480 वर्षों से संघर्ष जारी है. 2010 के इलाहबाद उच्च न्यायलय के निर्णय से तो यह स्पष्ट हो चूका है कि विवादित भूमि ही राम की जन्मभूमि है. आदर्श स्थिति तो यही होती कि वह भूमि मंदिर निर्माण के लिए हिंदुओं को सौंप दिया जाता. किन्तु मामला अब उच्चतम न्यायलय में है. उच्च न्यायलय से तो निर्णय आने में 60 वर्ष लग गए. संभव है कि उच्चतम न्यायलय में यह विषय 120 वर्ष तक लटका रहे. यह भी सम्भावना है कि 120 वर्षों बाद भी जब निर्णय आये तो न्यायालय में अपील दाखिल कर दी जाए और इस विषय पर अंतिम निर्णय 240 वर्षों बाद भी नहीं आये. हमारे न्याय व्यवस्था की जो स्थिति है उसमे कुछ भी असंभव नहीं है.
इसतरह यह तो लगभग स्पष्ट है कि रामजन्मभूमि पर भव्य मंदिर का निर्माण संसद में कानून बनाकर ही हो सकता है. संसद में कानून बनाने के लिए यह आवश्यक है कि वहाँ 272 रामभक्त संसद चुनकर भेजे जाएँ. आखिर बाबर के भक्त तो राम मंदिर पर आनेवाले विधेयक को समर्थन देंगे नहीं. देश में अबतक अधिकतम 200 ऐसे सांसद ही पहुँच सके हैं जो स्पष्ट रूप से भव्य मंदिर के पक्ष में खड़े थे. ऐसे में विश्व हिन्दू परिषद और संत समाज ऐसा जनमत खड़ा करना चाहती है जो 272 रामभक्त सांसदों को लोकसभा में पहुँचा सके. संतों की चिंता का कारण मंदिर मात्र ही नहीं है. भारत हिंदुओं के लिए पितृभूमि के साथ पुण्यभूमि भी है जिसकी चतुर्दिक दुर्दशा से देश के संत भी व्यथित हैं. जनजागरण और सामाजिक उत्थान के लिए यात्राओं का हमारे संतो का लंबा इतिहास रहा है. सनातन परंपरा की रक्षा के लिए आदिगुरु शंकराचार्य ने अखंड भारत को दो बार नापा था.
रामजन्मभूमि का मुद्दा न तो संतों के लिए राजनीतिक है न विश्व हिन्दू परिषद के लिए. यद्यपि जब भी आवश्यक हुआ है आदिकाल से ही संतों ने राजनीति को जनहित और राष्ट्रहित में प्रभावित करने का प्रयास भी किया ही है. अटल बिहारी वाजपेयी की नेतृत्व वाली सरकार जब मंदिर मुद्दे का समाधान नहीं निकाल सकी तो विश्व हिन्दू परिषद ने उनकी तीखी आलोचना भी की और उनके सरकार के विरुद्ध आंदोलन भी हुए. मंदिर के आंदोलन से जुड़े अधिकतर संत और नेता अपने जीवन के आठवें और नवें दशक में हैं. उनके लिए एक तरह से यह अंतिम मौका है. यदि उत्तरप्रदेश सरकार चौरासी कोसी परिक्रमा को डंडे के बल पर रोक भी देती है तो आने वाले कुछ महीनों में अन्य आन्दोलनों के लिए देश को तैयार रहना चाहिए.

हिन्दू विभाजित है किन्तु पौरुषविहीन नहीं है. उसके प्राथमिकता की सूचि में ‘हिन्दू’ सबसे ऊपर न आता हो किन्तु बना हुआ अवश्य है. रामजन्मभूमि पर भव्य मंदिर हिंदुओं के लिए आज एकमात्र मुद्दा भले न हो लेकिन यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दा अवश्य है. स्वघोषित सेकुलर दलों के मुस्लिम तुष्टिकरण से देश का युवा वर्ग व्यथित और सशंकित है. साधू-संतों के साथ यदि दुर्व्यवहार हुआ तो इसका दुष्परिणाम उत्तरप्रदेश में मुलायम और देश में कांग्रेस को भी भुगतना पड़ सकता है. कहीं ऐसा न हो कि मौलाना मुलायम के हाथ में मुसलमान तो रह जाए लेकिन हिन्दू ही निकल जाए. यदि कभी ऐसा होगा तो फिर मुसलमान के नेता मियां आजम खान होंगे और मुलायम उनकी पालकी उठाते नजर आयेंगे.

3 comments:

  1. BOLO BHAGVAN SHREE RAM CHAND KE JAI..............

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  2. कितना दुखद, कितना त्रासद है राम के देश में राम के ही भक्तों को राम की ही
    परिक्रमा करने से रोका जा रहा है ... उस देश में जहां 80% हिन्दू हैं

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  3. Mera aastha sandehaspad hai par is ashawanon ke desh mein dharmnirpekshata ke naam pe ye shariah republlic se bhi bura farmaan shobha nahin deta Maulan Mulayam Singh yadav ko.

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