अंततः भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव हो ही गया. एक बार
पुनः समय का पहिया घूमकर वहीँ आ खड़ा हुआ है, जहाँ वह वर्ष 2009 में या इसके पहले
भी हुआ करता था. हिंदी पट्टी के चार महत्वपूर्ण राज्यों में होने वाले विधान सभा
चुनाव, जो कि भाजपा के लिए करो और मरो के हैं तथा आसन्न लोकसभा चुनावों के लिए
संगठन का नेतृत्व राजनाथ सिंह के हाथों में ही होगा.
जिस तरह से भाजपा अध्यक्ष का चुनाव हुआ है, वह अपने आप में कई
यक्ष प्रश्न खड़ा करता है. कुछ घंटे पहले तक जिन नितिन गडकरी को दुबारा नेतृत्व
मिलना तय माना जा रहा था, उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा. और जो राजनाथ सिंह कुछ घंटे
पहले तक स्वयं को दौर से बाहर बता रहे थे, उन्हें तीन वर्ष के अंतर में ही फिर से
वही जगह मिली.
किसने एनडीटीवी में गडकरी के खिलाफ ‘खुलासे’ करवाए, नितिन
गडकरी के नियंत्रण वाली पूर्ती समूह में निवेश करने वाली कंपनियों से संबद्ध अन्य
कंपनियों के पते में गडबडी को नितिन गडकरी के साथ जोड़ना मीडिया की मूर्खता थी या
कोई षड़यंत्र, उनके नामांकन भरने से ठीक कुछ घंटे पहले आयकर विभाग की कार्यवाई क्या
संयोग मात्र थी, इसपर दर्जनों अलग लाइनें हैं. जिस तरह से ये चीजें पिछले दिनों
हुई हैं, उससे न केवल समर्थकों और कार्यकर्ताओं में बल्कि शीर्ष नेतृत्व में भी
बहुत हद तक अनिश्चय और अविश्वास की स्थिति बनी होगी. यह निश्चय ही भाजपा के लिए
अच्छी बात तो नहीं है. गडकरी को जिस तरह का समर्थन दूसरे कार्यकाल के लिए मिला
उसके पीछे कारण भी यही था कि दिल्ली की वह ‘माफिया’ जो भाजपा को स्वतंत्र नहीं होने
देना चाहती, उसी ने गडकरी को रोकने के लिए एक-से-एक कहानियाँ प्रचारित करवाई. कोई
व्यापार से सम्बन्ध रखने वाला गडकरी भाजपा संभाले तो वे भ्रष्टाचार के आरोप लगवा
दें और कोई संजय जोशी जैसा प्रचारक संभाले तो उसकी नकली सीडी बनवा दें. इन लोगों
ने निश्चय ही राजनाथ सिंह को नेतृत्व सौंपने के लिए ये कांटे नहीं बिछाए थे और
उन्हें राजनाथ के आने से निराशा ही हासिल हुई है.
लेकिन जिस तरह कुछ घंटो में ही देश की मुख्य विपक्षी पार्टी
नेतृत्व परिवर्तन के लिए तैयार हुई, वह आज के समय में जब ‘कॉर्पोरेट’ राजनीति को
प्रभावित करने और राजनीति से प्रभावित होने वाली सबसे बड़ी शक्ति समझी जाती है, इस
बात का संकेत है जनसंघ के तत्त्व अब भी बचे हुए हैं.
मिर्जापुर के एक छोटे से गाँव से निकलकर राजनाथ जहाँ पहुँचे
हैं, वह अपने आप में सफलता की एक कहानी है. उनकी राजनीतिक यात्रा को देखें तो लगता
है कि वे नए सम्बन्ध जोड़ने और पुराने को भी लेकर चलने में माहिर हैं. संघ से उनके
सम्बन्ध बेहद अच्छे हैं. उनकी महत्वाकांक्षा कभी भी उस तरह से प्रगट नहीं होती है जिस
तरह से मोदी और अरुण जेटली की. वे शत्रुता और बदले में विश्वास नहीं रखते. भाजपा
जैसी पार्टी, जहाँ कभी यह सिद्धांत हुआ करता था कि पद उसे दो, जिसे नहीं चाहिए, यह
एक लाभकारी गुण है. वे धोती पहनते हैं और ठेठ उत्तर भारतीय राजनेता लगते हैं, जो
कि भाजपा की जरूरत भी है. वाजपेयी सरकार में कृषि मंत्री रहे हैं और किसान नेता
कहे जा सकते हैं. चंद्रशेखर और भैरों सिंह शेखावत जैसे नेताओं के बाद के दौर में
वे सबसे बड़े ठाकुर नेता भी हैं. चुनावों के समय हिंदी पट्टी में उनकी अच्छी मांग
होती है. वे भाषणों में अनायास ही अटलजी की याद दिला देते हैं. भ्रष्टाचार के उनपर
एक भी आरोप नहीं रहे हैं और जोड़-तोड़ के राजनीति में भी अच्छे खिलाडी माने जाते
हैं. राजग के सहयोगियों और संभावित सहयोगियों से भी उनके सम्बन्ध अच्छे हैं.
उनकी चुनावी सफलता अबतक मिश्रित रही है. उनके उत्तरप्रदेश
भाजपा के अध्यक्ष रहते ही पार्टी ने लोकसभा की 58 सीटें जीती थी. लेकिन उनके
मुख्यमंत्री रहते हुए पार्टी विधयाकों की संख्या आधी हो गयी. उनके राष्ट्रीय
अध्यक्ष रहते हुए पार्टी ने गुजरात, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ को दोबारा जीता,
उत्ताराखंड, हिमाचल में वापसी की, कर्णाटक में पहली सरकार बनाई तो जम्मूकश्मीर में
भी अभूतपूर्व सफलता पाई. लेकिन 2009 के लोकसभा चुनावों में नतीजे खराब रहे. उनके
गृह राज्य उत्तरप्रदेश में भी पार्टी की घोर दुर्दशा हो गयी. यदि
सफलताएं राजनाथ के अकेले की नहीं हैं तो असफलताओं में भी हिस्सेदारी होगी हीं. तात्पर्य यह है कि चुनावी राजनीति में उनकी शक्ति का सही आकलन
अब भी होना बाकी है.
राजनाथ सन 2005 में राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए नए थे. दिल्ली
चौकड़ी, जिसने उस समय उनका जीना मुश्किल कर दिया था, अबतक बेहद कमजोर हो चुकी है. नरेन्द्र
मोदी, जिन्हें पिछली बार राजनाथ ने संसदीय बोर्ड से हटाया था, अब अच्छे मित्र बताये
जाते हैं. जबकि वसुंधरा राजे सिंधिया उन्हें नई पारी के लिए बधाई देनेवालों में
सबसे आगे रहीं. राजनाथ स्वयं भी पहले से अधिक शक्तिशाली हो चुके हैं और संभव है
परिपक्व भी. और सबसे बड़ी बात कि कांग्रेस बेहद खराब परिस्थितियों से गुजर रही है.
नरेन्द्र मोदी और राजनाथ की जोड़ी कारगर हो सकती है. यह
अटल-आडवाणी जैसी जोड़ी तो नहीं है, लेकिन उपलब्ध विकल्पों में सबसे अच्छी है. मोदी
शहरी मध्यवर्ग में खासा प्रभाव रखते हैं तो राजनाथ ग्रामीण अस्मिता के संवाहक हो
सकते हैं. यदि मोदी चेहरा हुए तो राजनाथ संगठन साध सकते हैं. लेकिन प्रश्न वही है
कि वाजपेयी और आडवाणी जी में जो आपसी विश्वास था वह आज किसी भाजपा नेता में किसी
के लिए है भी या नहीं? सुविधा के सम्बन्ध तो ठीक लेकिन दिल कहाँ मिलते हैं? कौन
किसकी टांग खिंच रहा है कोई जानता भी है या नहीं? भाजपा इससे अधिक नहीं बिखर सकती
है, वह ‘जनता’ नामधारी होने के बाद भी जनता दल नहीं हो सकती क्योंकि उसके जीवन का
स्त्रोत कहीं और ही बसता है. लेकिन संदेह के इस काल में जमघट को साधकर संगठन कौन
बनाएगा? कौन संदेह से परे है? प्रचंड लक्ष्य है. राजनाथ ने ठीक ही कहा – पद नहीं
दायित्व है.
बढ़िया विश्लेषण किया है।
ReplyDeleteगडकरी जी के साथ मीडिया ने बड़ी नाइंसाफी की, ऎसा मैं भी मानता हूँ। वहीं पार्टी को राजनाथ जी जैसे किसी नेतृत्व की जरूरत बहुत दिनों से थी। समीकरण आगे चलकर और परिष्कृत होने की आशा है।