विकिलिक्स के खुलासे से वह सच्चाई देश के सामने आई है जो देश का हर वो आदमी दो साल से भी अधिक समय से जानता है, जो जानने की इच्छा रखता था. सीएनएन-आइबीएन के पास तो सांसदों के सौदों के विडियो भी हैं लेकिन किन्ही कारणों से वे दिखाए नहीं गए. क्या कारण थे ये तो वही जानें. वरिष्ठ टीवी पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी ने तब लिखा था कि यह समझने वाली बात है कि रातों रात कुछ लोगो की प्रतिबद्धता कैसे बदल गई, कोई विडियो देखे बिना भी हम यह क्यों नहीं समझ सकते कि आखिर चार साल तक विरोध में गला फाड़ने वाला कोई नेता क्यों मतदान के समय पलटी मार जायेगा? समाजवाद के स्वयम्भू पुरोधा मुलायम सिंह भला अटॉमिक पॉवर और अमेरिका से मित्रता को लेकर इतने अधीर कैसे हो गए और अमर सिंह अपना अपमान कैसे भूल गए. सभी जानते हैं कि कैसे रातों-रात लखनऊ हवाई अड्डे का नाम चौधरी अजित सिंह के पिता और पूर्व प्रधानमंत्री दिवंगत चौधरी चरण सिंह को अर्पित कर दिया गया. लेकिन जब यह सब कुछ, सभी को पता है तो फिर हंगामा क्यों हो रहा है? क्यों विकिलिक्स का खुलासा देश को झकझोर रहा है? यही सबसे बड़ा सवाल है और जवाब बहुत आसान नहीं तो बहुत मुश्किल भी नहीं है.
देश में अब तक यह आम राय है कि प्रधानमंत्री ईमानदार व्यक्ति हैं. भले हीं लोग उनके नीतियों से सहमत नहीं हों लेकिन उनकी नियत पर सामान्यतः संदेह नहीं किया जाता है. लोग मानते हैं कि मनमोहन का कुनबा लुटेरों का कुनबा है लेकिन सरदार भरोसेमंद है, यह राय मीडिया, विपक्ष और जनता में भी थी. ‘थी’ इसलिए कि कॉमनवेल्थ गेम, 2G से लेकर इसरो तक में हुए गबन से आम आदमी का भरोसा तो टुटा है भले हीं विपक्ष और मीडिया का भी कायम हो. लेकिन इस विकिलिक्स के खुलासे ने मनमोहन के छवि में आखिरी कील ठोंक दी है. खुलासे में यह साफ़ है कि गाँधी परिवार और मनमोहन सिंह ने अपने लोगों को किसी भी तरह सरकार को बचाने का आदेश दिया हुआ था. भला हम यह कैसे मान सकते हैं कि सतीश चन्द्र शर्मा (और दूसरे लोग भी), जिस सरकार को बचाने के लिए संसदीय लोकतंत्र से बलात्कार कर रहे थे उस सरकार के मुखिया को पता हीं नहीं था कि ‘परमाणु समझौता बचाने और राष्ट्रहित में’ देश की सर्वाधिक उम्रदराज जीवित राजनीतिक पार्टी कौन कौन से खेल खेल रही है. यदि एक सरकार के मुखिया को यह नहीं पता हो कि उसके लिए कौन, कहाँ से और कैसे समर्थन जुटा रहा है तो उसे सरकार का नेता कैसे माना जाए और देश कैसे सौप दिया जाये? हर घोटाले, हर अनियमितता और हर गलती के उजागर होने के बाद वे कहते हैं कि उन्हें पता नहीं था अथवा उनसे धोखा हुआ. यह कैसा प्रधानमंत्री है जिसके मातहत काम करने वाले लोग उसको रिपोर्ट करना जरूरी नहीं समझते? यह कैसा प्रधानमंत्री है जिसे झूठी रिपोर्ट मिलती है और वह आँख बंद करके भरोसा कर लेता है. क्या यह सच नहीं है कि हर रोज आइबी (इंटेलिजेंस ब्यूरो) के प्रमुख प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करते हैं? और यह तय है कि कॉमनवेल्थ खेल के खेल से लेकर, राजा के 2G खेल और थॉमस से लेकर सतीश चंद्र शर्मा के खेल की रिपोर्ट, आइबी ने सुपर कैबिनेट और प्रधानमंत्री को जरूर हीं दी होगी. जिस तथ्य की जानकारी प्रधानमंत्री के पास होनी चाहिए थी, यदि वह उन्हें नहीं पता तो यह उनकी गलती है देश उसकी कीमत क्यों अदा करे. इस पूरी कहानी ने एक चीज प्रमाणित कर दी है कि या तो यह व्यक्ति (मनमोहन सिंह) महाधुर्त है अथवा महामूर्ख है और दोनों हीं हालत में उसे भारत का प्रधानमंत्री होने का कोई अधिकार नहीं है. मैं तो कहता हूँ महाधुर्त वाले आकलन को हीं प्रामाणिक मानिये क्योंकि यह आदमी इतना भोला नहीं है जितना दिखता है. देश अमर सिंह का वो बयान कैसे भूल सकता है कि 'कांग्रेस से एका किसी और के कारण नहीं बल्कि मनमोहन सिंह के कारण हुई है और विश्वासमत प्रस्ताव पर समर्थन के लिए पहल मनमोहन सिंह जी ने हीं की थी'. देश के जाने-माने पत्रकार, कुलदीप नैयर मनमोहन की तुलना शास्त्री जी से करते हैं. शास्त्री जी के रेलमंत्रित्व काल में एक दुर्घटना हुई और उन्होंने तत्काल त्यागपत्र दे दिया था. गाईसाल रेल दुर्घटना के बाद नीतिश कुमार ने भी त्यागपत्र दिया था. यद्यपि रेलमंत्री का काम सिग्नल देखना नहीं होता लेकिन उन्होंने नैतिकता का तकाजा माना. लेकिन इस मनमोहन की नैतिकता कहाँ गयी है? इनका तो सीधा सा जवाब होता है कि हम तो भाई सीधे सादे हैं हमें लोगो पर भरोसा है अब लोग धोखा दे दें तो हमारी क्या गलती है.
अब परमाणु समझौता पूरी तरह संदेह के घेरे में है. आखिर अमेरिका की इस समझौते में इतनी दिलचस्पी क्यों थी? आखिर सतीश चंद्र शर्मा के सहयोगी नचिकेता कपूर पैसे दिखाने अमेरिकी दूतावास में क्यों गए थे? कहीं अमेरिका हीं तो यह सब फाइनेंस नहीं कर रहा था? मनमोहन कहीं अमेरिका का जासूस तो नहीं? यदि राष्ट्रहित की हीं बात थी तो सरकार बचाने के लिए सौदे क्यों हुए? अब वह समय आ गया है जब मनमोहन पर जोरदार हमला किया जाये और इटली और अमेरिका के दलालों की सच्चाई सामने आये.
इस सम्पूर्ण प्रकरण से एक बात साफ़ हो गई कि हमें अब विश्व का सर्वाधिक बड़े और उदार लोकतंत्र का दावा त्याग देना चाहिए. और यह सब हुआ है एक नौकरशाह को देश सौप देने से. 2004 में एक अराजनीतिक नौकरशाह के प्रधानमंत्री बनने से, देश का पढालिखा उच्चवर्ग प्रसन्न था. इस अराजनीतिक प्रधानमंत्री का हीं नतीजा है कि जाट समुदाय 10 दिनों से रेल लाइन पर बैठा है और प्रधानमंत्री के कानों में जूं तक रेंगने को तैयार नहीं.
लोकतंत्र खतरे में है हमारी संप्रभुता दांव पर है और सामने घुप्प अँधेरा है. जिन लोगो ने मनमोहन के लिए वोट किया था वे भी आज माथा पीट रहे हैं.
बहुत बढ़िया।
ReplyDeleteएनालिसिस बिल्कुल दुरुस्त है।