अब यह लगभग स्पष्ट
है कि नितीश कुमार राजग का हिस्सा बने रहना नहीं चाहते हैं (मैं जनता दल यूनाइटेड
इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि शरद यादव राजग से विलग होना नहीं चाहते). उन्हें यह ‘समझ’
में आ गया है कि भाजपा ‘सांप्रदायिक’ दल है और ‘लोहिया की धारा’ से निकले होने के
कारण उन्हें भाजपा के साथ खड़ा नहीं होना चाहिए. यह अलग बात है कभी लोहिया भी जनसंघ
के साथ खड़े हुए थे और नितीश भी भाजपा के साथ तब आये थे जब रामजन्मभूमि आंदोलन चरम
पर था. आज नितीश कुमार देश के संभवतः दूसरे सर्वाधिक चर्चित मुख्यमंत्री हैं. लालू
प्रसाद यादव के जंगल राज से निकालकर, बिहार को विकास के रास्ते पर लाने वाले नितीश
कुमार के ‘राजनीतिक विकास’ को समझने का
प्रयास किया गया है.
सन 1990 में लालू प्रसाद
यादव के मुख्यमंत्री बनने के पहले तक नितीश कुमार की पहचान लालू यादव के एक
विश्वसनीय सिपाही और सलाहकार के रूप में ही थी. वे पहली बार सन 1985 में बिहार विधानसभा
के लिए निर्वाचित हुए. सन 1989 में उन्हें पहली बार लोकसभा जाने का मौका मिला
और लालू के समर्थन से हीं राज्य स्तर के मंत्री भी बनाये गए. जब शरद यादव, चौधरी देवीलाल
से लालू को मुख्यमंत्री बनाने की पैरवी कर रहे थे तो नितीश भी अपने स्तर लालू यादव
के लिए समर्थन जुटाने में लगे थे. कहने वाले कहते हैं कि रघुनाथ झा को तीसरे
उम्मीदवार के तौर पर मैदान में उतारने का सुझाव लालू यादव को नितीश कुमार ने ही
दिया था. और इसी ‘ब्रह्मास्त्र’ के सहारे लालू यादव, रामसुंदर दास से अधिक विधायक
जुटाने में सफल रहे.
लेकिन सामूहिक
नेतृत्व में मिली सत्ता को लालू ने एक झटके में अपनी सत्ता बना ली. मंडल कमीशन के
दौर में ‘भूरा बाल’ साफ़ करने के नारे से लेकर लालकृष्ण आडवानी के रथयात्रा को
रोककर कर वे एक झटके में ओबीसी, दलित और अल्पसंख्यक समाज के एकक्षत्र नेता बन गए.
इस पूरे दौर में नितीश कुमार छाया के तरह उनके साथ लगे रहे. अब लालू दिन में हीं
प्रधानमंत्री बनने के सपने देखने लगे थे. नितीश कुमार भी चाहते थे कि ‘बड़े भाई’
दिल्ली प्रस्थान करें तो बिहार उन्हें दे जाये. लेकिन लालू पटना से हीं दिल्ली साध
रहे थे. ऐसे में नितीश को अलग होना ही था. सन 1994 में बिहार 40
जातीय सम्मलेन हुए. इन
सभी सम्मेलनों में नितीश ही संयोजक हुआ करते थे. आखिरी रैली कुर्मी जाती की थी
जिससे नितीश कुमार भी आते हैं. मंच से ही नितीश ने लालू यादव से कुर्मियों के लिए
आरक्षण माँगा. लालू ने नहीं दिया और ‘कुर्मी जाति के साथ हुए अन्याय’ के विरोध में
नितीश कुमार ने पार्टी छोड़ दी. इसके पहले तक नितीश कुमार को कुर्मी पूछते तक नहीं
थे.
समाजवादी राजनीतिक
धारा के ‘उच्च’ परम्पराओं के अनुसार जार्ज फर्नांडिस भी नाराज ही चल रहे थे तो दोनों
ने एकसाथ आकार समता पार्टी बना ली. सन 1995 के विधानसभा चुनाव में समता पार्टी अकेले
लड़ी. तब भी नितीश कुमार मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार थे. लेकिन अविभाजित बिहार में
कुल जमा 6 सीटें
हीं जित सके. इसी विधानसभा चुनाव में भाजपा कांग्रेस को पीछे छोड़ते हुए मुख्य विपक्षी
दल के रूप में उभर के आई और यशवंत सिन्हा के बाद सुशील कुमार मोदी बिहार में
विपक्ष के नेता बने. ‘बाबरी ढांचा विध्वंश’ से लेकर जनता दल-कांग्रेस की यारी ने
सवर्णों को भाजपा के पाले में लाकर खड़ा का दिया. शहरी मध्यवर्ग एवं व्यवसायी वर्ग तो
पारंपरिक रूप से भाजपा के साथ रहा ही है.
लेकिन भाजपा को एक
ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी जो पिछडों को लालू यादव से तोड़ सके और साथ ही उसके
अपने वोटर के लिए भी खतरा न हो. प्रारंभिक दिनों में घोर जातिवादी रहे नितीश कुमार
के कम बोलने की विशेषता उन्हें इस योग्य बनाती थी. नाम न था लेकिन बदनाम भी नहीं
थे. साथ ही सभी समाजवादी धडों में जार्ज फर्नांडिस का भी अपना सम्मान था. उनके साथ
आने से गठबंधन के लिए अन्य दलों में स्वीकृति की संभावना भी बढती थी. ऐसे समय में
नितीश कुमार को भाजपा का साथ मिला और संगठन से लेकर अन्य ‘भौतिक संसाधनों’ की जरूरतें
भाजपा ने ही पूरी की. उन्हें लागातार केन्द्र सरकार में रेलवे और कृषि जैसे महत्वपूर्ण
विभाग दिए गए. जबकि रामविलास पासवान ने केंद्रीय मंत्रालयों के जरिए स्वयं को
स्थापित करने की कोशिश की तो उन्हें एक तरह से बाहर भी किया गया. सन 2000 के विधानसभा चुनाव
के बाद जनता दल यूनाइटेड के अपेक्षा दोगुनी सीट जित कर भी भाजपा ने नितीश को ही
नेतृत्व दिया. जबकि सन 2005 के बाद वे स्वाभाविक दावेदार के तौर पर उभर के सामने आये.
अब तक का गठबंधन,
जार्ज फर्नांडीस और भाजपा का था. लेकिन यहाँ से यह नितीश कुमार और भाजपा का होना
था. ‘उच्च’ समाजवादी परम्पराओं के अनुसार फर्नांडीस को हटाकर शरद यादव को अध्यक्ष
बनाया गया. एक-एक कर जार्ज के समर्थकों को ठिकाने लगाया गया. इसके बाद अपने ही उन
साथियों को निपटाया जो मुश्किल दिनों में हमेशा उनके साथ खड़े रहे. आज राजीव रंजन
सिंह, अरुण कुमार, प्रभुनाथ सिंह, दिग्विजय सिंह (अब दिवंगत), ओम प्रकाश यादव,
उपेन्द्र कुश्वाहा जैसे कितने ही लोग अलग खड़े दिख रहे हैं. जबकि लालू के जंगल राज
के सिपाही श्याम रजक, शिवानंद तिवारी, रमई राम, संजय सिंह जैसे और कितने ही नितीश
कुमार के इर्द-गिर्द दीखते हैं. सामूहिक सरकार को ‘विधिपूर्वक’ नितीश की सरकार बनाई
गई.
सत्ता का नशा ही कुछ
ऐसा होता है कि संघर्ष के दिनों के साथी बोझ लगते हैं और कल तक गाली देने वाले
चारण-भाट प्रिय लगने लगते हैं. यह नजारा गुजरात से बिहार तक देखा जा सकता है और
किसी भी दौर में देखा जा सकता है.
इसमे कोई संदेह नहीं
कि भाजपा का साथ न मिला होता तो नितीश कुमार की राजनीति शुरू होने के साथ ही खत्म
हों गई होती. उस दौर में भाजपा से अधिक अछूत तो नितीश ही थे. धीरे-धीरे लालू यादव
से नाराज लोग नितीश के साथ आते गए और कुनबा बढ़ता गया. लालू यादव ने स्वयं को ओबीसी+दलित+मुस्लिम
नेता से मुस्लिम+यादव में बदल लिया. उन्हें इस बात का गुमान था कि जब मुस्लिम+यादव
वोट 30 प्रतिशत
होते हैं तो किसी और की क्या आवश्यकता. लेकिन समय का चक्र ऐसा घूमा कि यादव और
मुस्लिम वोट बैंक ही आमने – सामने खड़े हो गए.
कभी बड़ी, फिर बराबर
के साथी रही भाजपा को नितीश कुमार जूनियर समझते, समझाते और बनाते रहे. नितीश का
इतिहास बताता है कि वे भाजपा के साथ अब नहीं चलेंगे. जब तीन दशकों तक साथ रहे लोग
नेपथ्य में ठेल दिए गए तो भाजपा तो फिर भी
अलग दल है. शरद यादव को इस्तेमाल कर उन्होंने जार्ज फर्नांडीस को निपटाया था और अब
शरद यादव को ही निपटाने पर लगे हैं. इसके सपष्ट संकेत तब मिले जब शिवानंद तिवारी
भी शरद यादव के साथ राजग के बैठक में शामिल हुए. शरद यादव की झुंझलाहट भी कभी-कभी
दिख ही जाती है. भाजपा और जनता दल यूनाइटेड के मध्य अब शरद यादव ही एक डोर हैं या यूँ
कहे कि नितीश के भाजपा से अलग होने के राह में बाधा भी हैं.
(अगले भाग में हम
राजग के टूटने के बाद की परिस्थितयों पर चर्चा करेंगे).


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